Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 138
________________ २. २५.९] हिन्दी अनुवाद २३ मन्त्रियोंके वचन सुनकर वीरदमन और राजा श्रीपाल दोनों योद्धा आपसमें भिड़ गये, मानो दोनों सिंह हों। या मतवाले दो चिग्घाड़ते हुए हाथी हों। मानो कुमार सुन्द उपसुन्द हों। मानो दो चपल तलप्रहार करनेवाले ( चाँटोंसे प्रहार करनेवाले ) भिड़ गये हों। मानो रावण और सुभद्र योद्धा लक्ष्मण आ भिड़े हों। मानो आशंकित होकर भीम और दुःशासन भिड़ गये हों। मानो कुमार बाहुबलि और भरत भिड़ गये हों। मानो जिनवर और कामदेवका युद्ध हो। मानो अर्जुन और महाप्रचण्ड कर्ण हों। वे ऐसे जा भिड़े मानो दो मत्त साँड़ हों। जैसे सुग्रीव और कपट सुग्रीव । हनुमान् और अक्षयकुमार जिस प्रकार भिड़े, उसी प्रकार जिस प्रकार भीमसेन और कम्मीर-वीर आपसमें भिड़े थे उसी प्रकार वीरदमन और श्रीपाल आपसमें भिड़ गये। घत्ता-दोनों ही मतवाले गजके समान थे। युद्ध में समुज्ज्वल, एक-दूसरेको मुद्गरसे मारने लगे। फिर उन्होंने पैनी तलवारोंसे प्रहार किया। एक-दूसरेपर 'तोमर' छोड़ने लगे ॥२३॥ २४ कोतल कुन्त और कटारें, ये और इस प्रकारके बहुत हथियार चूर-चूर हो गये। तब हाथ फटकारते हुए दोनों दौड़े। अब युद्धके मैदान में मल्लयुद्ध प्रारम्भ हुआ। ढोक्कर, करण और चरणोंका संघात । कौशलसे वे घुसते, स्खलित होते और मुड़ते । तब श्रीपालने वीरदमनसे कहा"बेचारे, तुम मरोगे, शंकित तुम कहाँ जाओगे ? तब उसने करण दावसे गलेमें ढोकर (दाव) डाल दिया और हाथको हाथमें लेकर चूर-चूर कर दिया। तब सुरसमूहने जय-जयकार किया और उसके ऊपर पुष्पमालाएँ अर्पित की।' वीरदमनको बाँधकर श्रीपालने मुक्त कर दिया और उसने कहा"तुम मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हारा पूज्य हूँ। मणि और सोनेसे मण्डित महान् धरतीका तुम पालन करो।" तब वीरदमन हँसता हुआ बोला-"मैं अपराधी हूँ, मैं दीक्षाके योग्य हूँ। हे पुत्र, यह तुम्हारा राज्य है। यही ठीक है।" पत्ता-जनमनोंको हर्षदायक सोनेके स्वच्छ श्रेष्ठ कलशोंसे कुमारके सिरका अभिषेक किया गया । स्वर्ण निर्मित रत्नोंसे जड़ा राजपट्ट श्रीपालके सिरपर बाँध दिया गया ।।२४।। २५ तपश्चरणकी बात कहकर वीरदमन वहाँसे चला गया। श्रीपालने अपने भवनमें प्रवेश किया। घर-घर मोतियोंकी रांगोली की गयी। दोनों ओर तोरण बाँधे गये । मदगल हाथी गरजने लगे। अत्यन्त भव्य और सुन्दर गीत गाये जाने लगे। ब्राह्मण वेदोंका उच्चारण कर रहे थे। वैतालिक जी भर प्रशंसा कर रहे थे। बहुतसे उत्सवोंमें नारियाँ नृत्य कर रही थीं। ध्वजचिह्नों और छत्रोंके साथ चवर ढोर रही थीं। सामन्त, मन्त्री और सेना श्रीपालकी सेवामें तत्पर थे। उस अंगदेशकी चम्पानगरीमें मदनासुन्दरी पट्टरानी थी, अट्ठारह हजार रानियोंके ऊपर। वह सप्तांग राज्यका सुखपूर्वक उपभोग करने लगा। उसने चारों वर्णोकी प्रजाका पालन किया। सबसे पहले उसने धर्मका साधन किया, फिर अर्थ, काम और प्रशस्त मोक्षका भी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184