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२. २७. १४]
हिन्दी अनुवाद घत्ता-नयनोंके लिए आनन्ददायक अरिदमनका पुत्र श्रीपाल एक दिन सुखसे राज्यसभामें बैठा हुआ था, इतनेमें बहुतसे सुन्दर और नये फल, दल और फूल लेकर वनपाल वहाँ आया ।।२५ ॥
उसने कहा-“हे प्रियभाषी और शत्रुओंको सतानेवाले राजन्, बधाई है आपको । अशेष गुणगणवाले ज्योतिस्थानमें स्थित, नर, सुर और विद्याधरोंके द्वारा वन्दनीय, मलसे मलिन गात्र, परन्तु चारित्र्यसे पवित्र, तप और व्रतोंमें प्रमुख, प्रसन्नमुख, संजय नामक मुनि उपवनमें पधारे हैं । उन्होंने उपवनको शरद् और वसन्तकी भाँति बना दिया है। वह वासुपूज्य भगवान्के मन्दिरमें विराजमान हैं। अरिदमनका पुत्र वन्दनाके लिए वहाँ आया। आसनसे सात कदम धरती छोड़कर उसने नमन किया और परोक्षमें गुरुकी विनती की। फिर उसने आनन्द के नगाड़े बजवा दिये और भव्यरूपी कमलोंका सूर्य वह वन्दनाके लिए चल पड़ा। नर-नारियोंसे घिरा हुआ और अन्तःपुरके साथ ऐसा लगता था, जैसे इन्द्र हो। पैरोंके नूपुरोंसे रुनझुन शब्द करती हुई युवतियाँ मुनिगणकी स्तुति करती हुईं जा रही थीं। नगरके सभी लोग वन्दना भक्तिके लिए आये जो दूरभव्य और आसन्न भव्य थे वे सभी।
घत्ता-उन्होंने जिनमन्दिर देखा, जिसमें पिंडीद्रुमको छायाके नीचे शिलापर मुनिराज विराजमान हैं । तीन प्रदक्षिणा देकर और विनय पूर्वक राजाने मुनिराजकी वन्दना की ॥२६॥
मुनिराजने सद्भावसे उसे धर्मबुद्धि दी। अपनी मानशुद्धिके लिए राजाने प्रेमसे जल, चन्दन, अक्षत और कुसुम समूह, चरु, दीप, धूप और फलोंसे मुनिराजके चरणोंमें कुसुमांजलि अर्पित की। दर्शन, ज्ञान और चारित्र्यका नाम लेकर, पैरोंकी पूजा की एवं उनका अभिनन्दन किया और कहा- "हे प्रभु, विश्ववन्दनीय धर्मकी व्याख्या कीजिए। भट्टारकने कहना प्रारम्भ किया कि हिंसा रहित धर्म ही संसारमें श्रेष्ठ है, वह सत्यवचनसे पूजनीय है। दूसरेके धन और स्त्रीसे बचना चाहिए और परिग्रहका परिमाण करना चाहिए। तीन गणव्रत और f आचरण करना चाहिए। इस प्रकार इस गृहस्थधर्मका परिपालन करना चाहिए। तब राजा प्रणामपूर्वक पूछता है-“हे परमेश्वर, मेरी भवगति बताइए। किस पुण्यसे मैं इतने अतिशयवाला हुआ, अतुलनीय योद्धा तीनों लोकोंमें विख्यात । किस कर्मसे मैं राजाओंमें श्रेष्ठ हुआ ? किस कर्मसे कोढ़ी, निर्धन हुआ ? किस कर्मसे समुद्र में फेंक दिया गया ? किस पापसे मैं डोम कहलाया ? मदनासुन्दरी मेरी अत्यन्त भक्त क्यों है ? हे परमेश्वर, इसका कारण बताइए ।
घत्ता-ये वचन सुनकर मुनिवर बोले-“पुण्य और पापका फल कहता हूँ। हे राजा श्रीपाल, सुनो तुम्हारे जन्मान्तर कहता हूँ ॥२७॥
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