Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 142
________________ २. ३०.९] हिन्दी अनुवाद २८ हे राजन्, सुनो कहता हूँ। इस भरत क्षेत्रके विजयाध पर्वतपर रत्नसंचय नामकी एक नगरी है जो विद्याधर लोकके लिए सुखकर है। उसमें श्रीकान्त नामका राजा निवास करता था। उसकी श्रीमती नामकी पत्नी वैसी ही थी जैसी कामकी रति । वह प्रतिदिन जिनशासनकी वन्दना करती थी। जिनका अभिषेक, पूजा और मुनियोंको दान देने में लीन रहती थी। श्रीकान्त धर्मका मार्ग नहीं जानता था। पत्नीने उसे समग्र धर्मका मार्ग सिखाया। उसने श्रावकके व्रत अंगीकार कर लिये। गुरु द्वारा प्रदत्त ये व्रत उसे बड़े अच्छे लगे। इस प्रकार वह सुखपूर्वक धर्मका पालन करने लगा। परन्तु उसकी संगति मिथ्यादृष्टियोंसे हो गयी। वह बावला हो गया। उसने धर्म ही छोड़ दिया। इसी पापसे वह अपने राज्यसे भ्रष्ट हुआ। तुमने एक नग्न साधुको आते हुए देखा, अत्यन्त गोरे और व्रतशील वाले। ___घत्ता-मलधारी वह मुनि अवधिज्ञानी थे, परन्तु तुमने उन्हें कोढ़ी कहा। तुमने मुनिकी निन्दा की। तुमने भर्त्सना की उसीसे तुम समानरूपसे पीड़ित हुए ॥२८॥ ०० मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी तुम लोग मरकर सातसौ राना कोढ़ी हुए। नदी किनारे आतापिनी शिलापर मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर तुमने उन अनिन्द्य की निन्दा की। तुमने ढकेलकर मुनिको पानी में डाला । इसी पापसे तुम समुद्रमें फेंक दिये गये । उग्रदीप्त मुनिका शरीर कायक्लेशसे क्षीण हो गया था। हिमपटलसे उनका शरीर ढक गया था और वह मुनिवर कान्तिहीन हो गये थे। तुमने उन्हें 'डोम' कहकर सताया। इसी कारण तुम डोम कहलाये। किसीने श्रीमती देवी से कहा कि तुम्हारा स्वामी धर्मसे रहित हो गया है। मुनिको देखकर निन्दा करता है। अबोल बोल बोलता है । अपने हाथसे आतापिनी शिलासे मुनिको नदीमें ठेलता है। वह पापी मिथ्यादृष्टिसे मिल गया है। लोग बात करते हैं कि वह उन्हें कोढ़ी, डोम कहता वह अज्ञानी नट....और डोमोंकी संगतिमें रहता है। लोग कहते हैं कि राजा सयाना नहीं है। घत्ता-यह सुनकर श्रीमती विरक्त हो उठी। उसने उदासीन होकर घर-द्वारमें अपनी आसक्ति छोड़ दी। उसने निश्चय किया कि मैं कल तप ग्रहण कर लूँगी। आर्यिका बन जाऊँगी। ऐसे पति पर वज्र पड़े ॥२९॥ इधर राजा भी अपने घर गया । उसने अपनी पत्नी श्रीकान्ता को कान्तिहीन और मूच्छित देखा। किसी अनुचरने राजासे कहा कि हे देव, आपने जैनधर्मकी उपेक्षा की है। महादेवी इसीसे दुःखी है । जो समूचे अन्तःपुरमें प्रमुख है। जब अनुचरने यह बात कही तो जैसे राजाके कानोंमें किसीने भाला मार दिया हो । जाकर वह देवी के पैरों पर पड़ गया। "हे देवि, मुझे क्षमा करो, मैं पापसे विजड़ित हूँ। यदि मैं जिनधर्मका पालन न करूँ, तो सब राजाओंमें लज्जित होऊँ ।" तब दोनों शीघ्र जिनमन्दिर गये। दोनोंने जिनश्रुतको नमनकर मुनिको नमस्कार किया। उ कहा कि मुनिराज, हमारे वचन सुनिए-मैं कुसंगके साथ लग गया, मुझे प्रायश्चित्तका दण्ड दीजिए, जिससे पापका नाश हो जाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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