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१. ३८.१० ]
हिन्दी अनुवाद
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पताकाएँ और छत्र शोभित थे । गाने-बजानेके साथ लोग नाच रहे थे । घरमें ले जाकर उससे बातचीत की और रत्न - निर्मित श्रेष्ठ आसन उसे दिया और फिर शुभ मुहूर्तमें लगनकी स्थापना की। हरे बाँसका वहाँ मण्डप बनाया गया और उसे चवरी और सात फेरे दिलाकर रत्नमंजूषाका उससे विवाह कर दिया । उसने बहुत उत्तम हाथी और घोड़े उसे दिये । रत्नके कटोरे और सोनेके थाल दिये । विवाह हो गया और नगरमें घर-घर खुशियाँ मनायी गयीं । श्रीपाल उसे लेकर विडघर पहुँचा ||३६||
घत्ता - श्रीपाल जय-मंगल शब्दों और राजाओंके साथ गुणसुन्दरी रत्नमंजूषाको लेकर जहाँ धवसेठ था उस विडगृहमें ऐसे पहुँचा मानो नारायण और लक्ष्मी हों ||३६||
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fasोंके बीच उत्साह फैल गया और धवलसेठ भी कपटसे मनमें प्रसन्न हुआ । उसने उसे खान-पान और पानके साथ केशर मिश्रित कपूर दिया । बादमें श्रीपाल रत्नमंजूषासे कहने लगा"हे प्रिये ! मेरी प्रिया मालव देशमें है, मदनासुन्दरी अत्यन्त स्नेहवाली । उसने अपने रूपसे इन्द्राणीको जीत लिया है । मदनासुन्दरीके समान महासती स्त्री न तो है, न हुई है और न होगी । वहाँ उज्जैन नामकी नगरी है । वहाँ कुन्दप्रभा मेरी माँ और तुम्हारी सास रहती है । वहाँ सात सौ राणा और हैं जो मेरे अंगरक्षक हैं और मेरे जीवन के प्राण । हे कृशोदरी, और भी सुनो । मेरा मूलनिवास अंगदेशमें चम्पापुरी नगरी है लेकिन समस्त समूह उज्जयिनी में रहता है । मैं उन्हें बारह वर्ष की अवधि देकर आया हूँ । जिस तरह हे प्रिये ! तुम मुझ परदेशीको दी गयी हो, तुम भी राज्य-भोगसे परिपूर्ण हो जाओगी । तब रत्नमंजूषाने कहा - "मुझे अच्छा वर मिला ।" और महान् स्नेहसे भरकर उसने उसका आलिंगन कर लिया ।
धत्ता- जो कर्मोंके द्वारा देखा गया और जिसका कथन मुनिवरने किया वह सहस्रकूटका द्वार उद्घाटित हो गया । मैं ने पति पा लिया । मानो युद्धमें शत्रु घोर धन ताड़न सह रहा है (?) ||३७||
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फिर विs लोग आनन्दपूर्वक वहाँसे चल पड़े । गाते-बजाते जय-जय शब्द करते हुए । समुद्रके भीतर जहाज चला दिये गये, हवाके झोंकेसे, मानो यन्त्र ही प्रेरित कर दिये गये हों । नाटक, गीत और बड़े-बड़े विनोद वणिक् लोग श्रीपालको बताने लगे । जब लोग जहाजमें नाच रहे थे तब धवलसेठ कामसे उन्मत्त हो उठा । रत्नमंजूषाको देखकर वह विद्रूप हो उठा। वह मूर्ख कामके तीरोंसे विद्ध हो गया । उसका तालु संकुचित हो गया । मनमें शल्य लग गयी । उसी प्रकार जिस प्रकार नदी सूखने से मछली तड़फने लगती हैं जैसे-जैसे सुन्दरी नाटक करती, वैसे-वैसे सेठका हृदय आकृष्ट होता जाता । रत्नमंजूषा आलाप भरती, सेठके हृदयमें कराह उठती । रत्नमंजूषा हँसती और गाती, परन्तु उससे सेठकी मरणावस्था दिखाई देने लगती । वह जैसे ही अपने प्रियका आलिंगन करती वैसे ही उस सेठको बहुत बड़ा ज्वर चढ़ आता ।
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