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हिन्दी अनुवाद बाद वह चिल्लाया कि मुझे बचाओ। वणिग्वर भी बोले कि इस नीचको निकालो। इस पापी नीच और दुष्टाचारवालेको। व्यन्तर देवता इस प्रकार उपसर्ग करके चले गये। उन्होंने लगातार उस वणिग्वरको शिक्षा दी। वे रत्नमंजूषाको भी समझाकर चली गयीं कि तुम्हारा श्रीपाल आकर मिलेगा। इसके बाद जलयान चल पड़े तथा वे दूसरे द्वीपों और टापुओंसे जा लगे। अब सुनिए कथा वहाँकी जहाँ श्रीपाल उछला था।
घत्ता-कर्मसे नचाया गया, रत्नमंजूषाका प्रिय समुद्रमें गिर गया। सभी शोकमें पड़ गये। करुणासे भरकर बोले-“अब श्रीपाल दुर्लभ हो गया" ।।४५।।
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श्रीपाल वहाँ ध्यानमें लीन हो गया। जिणवर सिद्ध साधुका वह मनमें ध्यान करने लगा। जलसमूहकी लहरें आकर उससे टकराने लगीं। करुणदेवी अपने जलभवनमें बोलने लगी । मगर, गोह और घड़ियाल भी चिल्ला उठे। कच्छ, मच्छ और जलमनुष्य ज्ञात होने लगे। सुंसुमार और जलहाथी भी चुप नहीं बैठे। बडवानलकी ज्वालाओंसे भी वह डरा नहीं। वह महाबली उछलकर पाताल लोकमें चला गया। उसी प्रकार जिस प्रकार मुक्त तुम्बीफल जलके भीतर। अपने बाहुबलसे वह समुद्रका सन्तरण करने लगा। पुण्यसे उसे काठका एक टुकड़ा मिल गया। हाथसे समुद्रको तैरता हुआ आया और दलवट्टण नगरके किनारे जा लगा। जो शत्रु राजाओंके मनका दमन करने वाला था। उसने पाटनद्वीपमें दलवट्टण नगर देखा। वहाँ राजा धनपाल धरतीका पालन करता था। उसे धनद और यक्ष नमस्कार करते थे। उसकी पट्टरानीका नाम वनमाला था। अपनी कोमल भुजाओंसे वह मालतीकी माला थी। उसके पहले तीन सुन्दर पुत्र थे, कण्ठ, सुकण्ठ और श्रीकण्ठ। नरपतिके उन पुत्रोंकी उपमा किससे दी जाये ? पर्वतकके सुतकी तरह वे दिन-रात पढ़ते । उसकी एक पुत्री थी, जो स्नेहकी गुणमाला थी। मानो विधाताने स्नेहगुणमालाका निर्माण किया हो। वह अपने रूप और उन्मुक्त सौन्दर्यसे शोभित थी। बहत्तर कलाओंसे सब मनुष्योंको मोहित करती थी। राजाने उसके विवाहके लिए मुनिराजसे पूछा कि प्रेमसे बताइए कौन वर होगा ? यह कुमारी कन्या लड़कियोंमें विलक्षण है। मानो यह युवाजनोंके लिए रति है। शील और विवेकशालियोंमें यह अत्यन्त भली है। जो कामीजनोंके उरके लिए शल्य है। तब मुनिने कहा-"जो हाथोंसे जल तैरकर आयेगा, हे राजन् ! यह उसके हाथोंके घरमें रहेगी।" ज्ञानी मुनिवरने यह प्रकाशित किया । बहाना बनाकर राजा यानपर चढ़कर घर गया।
पत्ता-वह समुद्रके तटपर आया, उसे देखकर अनुचर भौंचक्के रह गये। उनसे उसने सलाह की कि यही वरवीर है । पुण्यसे ही यह राजपुत्र हाथ चढ़ा है ॥४६॥
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