Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 134
________________ २. २१.२] हिन्दी अनुवाद १९ युद्धमें धुरन्धर राजपुत्रोंसे उसने राजसेवा करायीं। इस प्रकार बहुतसे देश और उपराज्योंको साधते हुए उसने बहुत-सी राजकन्याओंसे विवाह किया। आठ हजार सुन्दर अन्तःपुर उसके साथ था। इतना ही पदनूपुरवाला पिण्डवास । समस्त चतुरंग सेना मिल गयी। वे सुन्दर प्रदेशवाले अंगदेशमें आये। वे चम्पानगरीके निकट पहुँचे। श्रीपालने वीरदमनके पास दूत भेजा। उसके मनमें जो बात थी वह दूतको बताते हुए उसने कहा कि “यही धर्मद्वार है। वह (वीरदमन) इसपर चलता है तो ठीक, नहीं तो उससे खरी-खरी बात कहो । तुमने बचपनमें मारकर निकाल दिया था। वह तुम्हारा भतीजा तुम्हें जीवनदान दे रहा है। तुम्हारा वही भतीजा आ गया है। वह तुम्हें बुला रहा है। तुम श्रीपालके पुरुषार्थको स्वीकार लो। उसका प्रताप त्रिभुवनमें किसे दिखाई नहीं देता?' दूतके वचनोंका आशय जानकर वह वीर राजा कुपित होकर बोला-"जो समरघटामें सुभट समूहको मोड़ देता है, वह इस योद्धा श्रीपालको क्या समझता है ?" घत्ता–इसपर, दूत कहता है—'तूं अपनी प्रशंसा करता है, और श्रीपालकी निन्दा करता है जिसकी अपार सेना सेवा करती है। तुम भी उसे मानो, उसकी सेना बहुतसे रानाओंके कारण अभंग है ।।१९।। २० जिसके पास अट्ठारह लाख बानबे देश हैं, ऐसा उज्जैन नरेश उसकी सेवा करता है। सौराष्ट्र, गूजर, पंडिराज, दलवट्टणके राजा घनपालके बेटे सुकण्ठ, और श्रीकण्ठ भी आकर मिल गये। उसमें कनककेतुका भी प्यारा पुत्र है। चित्र-विचित्र वे भी आये हैं। और भी दूसरे राजा वहाँ थे, उन्हें कौन गिन सकता है? वहाँ तिलकराज सेवा करता है। उसमें कश्मीर और कीरका राजा है। अगनित खस और बब्बर आकर इकट्ठे हो गये हैं। भड़ौच और पाटनके राजा भी आये । कच्छदेशके कच्छवाहे भी सेवा करते हैं। प्रवीर कोटिभट श्रीपालसे तू स्वर्ग और पाताल लोकमें भी जाकर नहीं बच सकता। आज भी कठोर वचन क्यों कहता है ? अपने प्राण लेकर जहाँ जा सके, वहाँ जाओ। अपने अंगदेशको बचाओ। आज्ञाको मत मेटो। तुमसे सात सौ राणा कुपित हैं। __ पत्ता-कहाँ शृगाल और कहाँ सिंह; कहाँ घोड़ा और कहाँ गधा; कहाँ पीतल और कहाँ सुवर्ण ? जहाँ प्रभु श्रीपाल हैं शत्रुओंके क्षयकाल, अन्य वीरोंको स्थान कहाँ ? ॥२०॥ २१ तब चम्पानरेशने कहा-“हे भट्ट, तुम जाओ। तुम सारहीन बोलते हो । मैं कुमारको युद्धमें पकड़कर बन्दी बना लूँगा।" यह कहकर उसने रणकी भेरी बजवा दी । उसका शब्द सुनकर खलबली मच गयी। वीरदमन तुरन्त उठा। मानो मतवाले हाथी पर आरूढ़ यम हो। हाथियोंकी घटाएं चलने लगीं। धनुर्धारी उठकर, रथ और किक्काण खींचते हुए दौड़े। घर-घरसे बाकी राजपुत्र भी इकट्ठे होने लगे, जो युद्ध में शेष चतुरंग सेनाको जीत सकते हैं। अपने पतियोंसे स्त्रियोंका यह सन्देश वचन था- "हे प्रिय, मुझे श्रीनेत्र पट्ट लाकर देना।" एक कहती-"हाथियोंके गण्डस्थलोंसे उछलते हुए जितने भी मोती मिले हे प्रिय, उतने लाना।" कोई एक सरस प्रिया कहती है कि एक तलवार अपने पौरुषके प्रतीक स्वरूप मुझे देना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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