Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 89
________________ २६ सिरिवालचरित [१.२३.९पत्ता-पुणु जणणि समंदइ चलणई वंदइ अंवि विएसहो गच्छमि । सुण्हा-छलु किव्वइ जिणु पणविज्जइ जामि माइ आगच्छमि ।।२३।। २४ करुणु करती माय णिवारिउ पइं पेक्खिवि सुव हियउ सहारिउ । जाम वच्छ तुहं णयणहि पेच्छमि णिव-अरिदमणहो सोउ ण लेखमि। मई उरु धरिउ आस करेप्पिणु जाहि वच्छ णिरास करेप्पिणु । धीरी सामिणी होहि ण कायरि दुइ आएसु जामि जिम मायरि । भणइ माइ बीससहि मा णंदण अहि आसी-विस आणा खंडण । मा वीससहि पुत्त विस विसहर कउल-पिसाय-जलणजल जलहर । अट्ठ-वट्ठ-कक्कस कठोहरहं दंती-णहि-सिंगी दाढालहं । मा वीससहि कुपुरिस णिलक्खण 'मइर-पियाण अभक्खण-भक्खण । मा वीससहि वसण-आसत्तिय अलिय जुवाण णारि विड-रत्तिय मा वीससहि पुत्त परएसह साइणि-डाइणि-कुट्टणि-वेसह । मा वीससहि सुयण णिद्दालस लोही-आसण कोही-माणुस । मा वीससहि पुत्त खल-दुट्टहँ पित्तिय वीरदवण पाविठ्ठहँ । घत्ता-डंभी पाखंडी भवहिं तिदंडी, आण आहि सुय मेरिय । एयहँ ण पतिव्वउ कहिउ ण किव्वउ घाड-पहाड-वसेरिय ।।२४।। o लन्दुह २५ सिद्धासीस दिण्ण सिरिवालहो। किउ भालयलि तिलउ सुउमालहो। दहि-दूवक्खय मत्थय देविणु पुणु आरत्तिउ उत्तारेप्पिणु । दिण्ण असीस पुत्त एउ पावहि चाउरंगु बलु लेविगु आवहि । माय-घरिणी विणि वि संवोहिय अंगरक्ख सयसत्त विबोहिय । साहस-कोडि-भडहँ आसंघिवि गउ पायार-सत्त णह लंघिवि । णाणा देस-णयर विहरंतउ सरि-सरवर-पव्वय लंघतउ । गउ भडु वच्छ-णयर सुविसालउँ । धवलु सेठि जहि अवगुण-आलउ । सत्थवाह परदीवहँ चलियउ . "पोहणाहं सयपंचहं मिलियउ । बोइत्थ-सय-सायर-तड़ झेल्लिय चलइ बत्तीस-लक्खण-पय पेल्लिय । वणि समूह अवलोयण धाविउ जोयंतहँ सिरिवालु वि पाविउ। वणह मज्झि सुत्तउ परियाणिउ छाया गमणिं उत्तम जाणिउ । आपु आपु कहुँ धरि धरि ताणहिँ कोडि भडो वि ण वणिवर जाणहिं। कोलाहलु पहणु जणु खुहियउ कह हि कोइ परएसिउ गहियउ। ८. ग प्रतिमें इन पाँच छन्दोंको अलग कड़वक नहीं माना गया। इनके बाद वस्तुतः तेईसवाँ कड़वक प्रारम्भ होता है । अतः उसमें एक कड़वक कम है। २४. १. ग पिक्खिवि हियवउ साहारिउ । २. गणिव । ३. ग वीस सह ण णंदण । ४. ग अहिय-असेवय आणा खंडण । ५. ग अट्रवद्र कक्कस लंवा ठोरहं । ६. ग मयर । ७. ग अलिय जवार णारि विडरत्तिय । ८. ग आलस । ९. ग डिभी । १०. ग सुव । २५.१. ग माथे । २. ग धण पुत्तय पावहिं। ३. ग नह । ४. ग वेसालउ । ५. ग पोहणाहं सय संक्खहिं मिलयउ । ६. ग घोलिय । ७. ग पराविड़। ८. ग छायागमणे । ९. ग मिलियउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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