Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 88
________________ १. २३. ८ ] हिन्दी अनुवाद २५ बुझाकर और बारह वर्षको अवधिका विचारकर वह बोला कि क्या तुम जैसी स्त्री मेरे हृदयसे उतर सकती है ? फिर भी हे प्रिये ! विधाताने बारह वर्षका निश्चय ही विछोह दिया है ।" घत्ता—तब सुन्दर स्वर में वह बोली - " हे स्वामी, तुम मेरे हृदयमें हो । यदि तुम बारह वर्षमें लौटकर नहीं आये, तो मैं महान् तप ग्रहण करूँगी ||२१|| २२ घरकी चित्रशाला में क्रीड़ा करते हुए मदनासुन्दरी प्रियको सन्देश देती है - "हे स्वामी, संसारको नहीं भूलना । अहिंसा धर्म और पर उपकारको नहीं भूलना । स्वजनोंको आनन्द देना नहीं भूलना । जिन भगवान्‌की तीन काल वन्दना करना । शुभ मार्गको नहीं भूलना । चतुविध संघको चार प्रकारका दान देना । कुन्दप्रभा माँको मत भूलना। अंगदेश और चम्पापुरी नगरीको नहीं भूलना । हे स्वामी ! जिनकी आज्ञाको नहीं भूलना । अंगरक्षक सात सौ रानाओंको नहीं भूलना। मेरे स्वामी, आप साहस और पुरुषार्थको नहीं भूलना। मैं पैंतीस अक्षरोंका परममन्त्र कहती हूँ, यह मत भूलना । अपने प्रिय आयुधों को मत भूलना। मैं कहती हूँ स्वामी मत भूलना जगमें दुर्लभ प्रिय लोगों का काम करना । मत भूलना जो कुछ कहा है, बादमें मत भूलना हे मेरे प्यारे भोले राजा, हे देव, अपने गर्वको मत भूलना । सिद्धचक्रविधान और नन्दीश्वर पर्वको नहीं भूलना । भोगने योग्य इन्द्रके पदको मत भूलना और बारह वर्षमें अपने सुन्दर आनेको मत भूलना। थोड़े में हे प्रिय, एक बात और कहती हूँ, हे स्वामी, मुझ दासीको मत भूलना ।” घत्ता - " हे स्वामी, यदि तुमने भुला दिया और तुम आनेसे मुकर गये तो तुम मुझे मार डालोगे । यदि तुम नहीं आ सके और सहारा नहीं दिया तो हमारे लिए केवल मरण निश्चित है ।" २३ यह सुनकर वह कुमार चला और दौड़कर मुग्धाने उसका आँचल पकड़ लिया। तब क्रुद्ध होकर उसने कहा - "हे प्रिये, छोड़ो मुझे अपशकुन मत करो ।” ( गाहा ) । उसने कहा - " ओ ! प्रवासपर जानेवाले, वस्त्र पकड़नेपर तुम क्रुद्ध क्यों होते हो ? पहले किसे छोड़, हे प्रिय, अपने प्राण कि तुम्हारा आँचल ?” इसमें अचरजकी क्या बात है कि तुम हाथ छुड़ाकर जबर्दस्ती जा रहे हो ? हृदयसे यदि निकल जाओ तब तुम्हारा पौरुष मैं जानूँ । वह विलक्षण कहता है- 'हे प्रिय प्राणवल्लभे, तुम सुनो यदि मैं अपने व्रत और वचनसे विचलित होता हूँ तो मुझे सिद्धचक्र व्रतकी शपथ है । ... ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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