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भाषा
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गुणमाला रत्नमंजूषा के पास जाती है सचाई जानने । प्रश्न यह उठता है कि गुणमाला श्रीपालसे ही क्यों नहीं पूछती ? वह रत्नमंजूषा के पास क्यों जाती है ? कविने यहाँ बहुत ही सतर्कता बरती है । यदि श्रीपाल सच्ची बात कहता भी है तो उसका कहा कोई नहीं मानता ।
मुहावरे व लोकोक्तियाँ
कविने कहीं-कहीं मुहावरे व लोकोक्तियोंका भी प्रयोग किया है। मुहावरे व लोकोक्तियोंसे कविने अपने वर्णनको प्रभावशाली बनाया है ।
मुहावरे
'सिरिवाल चरिउ' में आये मुहावरे व लोकोक्तियों में से कुछ यहाँ दी जा रही हैं
१.
'धाइउ धाइ उरहि पिट्टंती । ( २१४ ) 'ता चितइ णरवइ पट्टिय महु मइ, 'राय मग्गु मइँ हारियज । ( १।१४ )
लोकोक्तियाँ
छन्द
२.
३. 'हउँ थिय पुत्ती किण्हहं वयणु ।'
४.
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१.
२.
'खामोयरि मेल्लिय दीह धाह । ( १।४२ ) 'णिय खीरहो मइँ णिरु छित्त छारु ।' ( १।१५ )
'णं दालिद्दिय लद्धउ णिहाणु ।'
'णं अंधे लद्धे बेवि णयण ।'
३.
४. 'बहिरें फुट्टे भए सवण ।'
५.
६.
७.
'णं बज्झहि लद्धउ पुत्तु जुवलु ।'
'लउ पाविय ण दयधम्मु अमलु ।'
'णं वाइहि सिद्धउ धाउ वाउ । ( २६ )
'सिरिवाल चरिउ' में कुल दो परिच्छेद हैं । पहलेमें ४७ और दूसरेमें ३६ कड़वक हैं । परन्तु 'ग' प्रतिके पहले परिच्छेद में ४७ के बजाय ४६ कड़वक हैं । 'क' और 'ख' प्रतियोंके पहले परिच्छेदके २२वें कड़वक में दो गाहा १ अनुष्टुभ् (संस्कृत) एक दोहड़ा और अन्तमें घत्ता है । परन्तु 'ग' प्रतिमें इसे अलग कड़वक स्वीकार नहीं किया गया । उसे २३ कड़वकके ऊपर 'प्रक्षिप्त' रूपमें डाल दिया गया है । इस प्रकार अपने आप एक कड़वक कम हो जाता है । वैसे उपर्युक्त पाँचों छन्द कहींसे प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं । अन्तमें घत्ता होने से उसे भूलसे कड़वक समझ लिया गया । वस्तुतः इस प्रकार के कड़वककी रचना 'सिरिवाल चरिउ' की शैली के विरुद्ध है । 'सिरिवाल चरिउ' के कड़वकोंकी रचना भी अपभ्रंश चरित काव्योंकी परम्परागत शैलीके आधारपर हुई है । प्रारम्भमें अपभ्रंश चरित काव्यों में चार पद्धड़िय अर्थात् सोलह पंक्तियोंका विधान था, ये सोलह पंक्तियाँ आठ यमकों में बँटी रहती हैं । यमकका अर्थ है दो पंक्तियोंका जोड़ा जिसमें अन्त्यानुप्रास भी हो । हालाँकि पाठक देखेंगे कि आलोच्य कृतिमें कहीं इस नियमका पालन नहीं हुआ । एक कड़वकमें यमकों की संख्या के विषय में 'कवि' किसी एक लोकपर नहीं चलता । किसी कड़वक में १२ पंक्तियोंका यमक है और कहीं ७ का है ।.
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घत्ता - वस्तुतः किसी छन्दका नाम नहीं, बल्कि छन्दके विशेष प्रयोगका नाम है । उदाहरणके लिए स्वयम्भूच्छन्द के आठवें अध्यायसे ऐसा लगता है कि 'कड़वक' के आरम्भका छन्द 'घत्ता' कहलाता था और अन्तका छन्द छड्डिनी । परन्तु अपभ्रंशके उपलब्ध चरित काव्योंसे इसका समर्थन नहीं होता । 'कड़वक'की समाप्तिको सूचित करनेवाला छन्द ही 'घत्ता' कहलाता है । घत्ताका अर्थ भी है कि जो विभक्त करे । इसके 'ध्रुवा ध्रुवक' या 'छड्डुणिया' नाम भी मिलते है । पिंगलके अनुसार घत्ता में ३१ मात्राएँ होती हैं । यति १० और ८ पर तथा अन्तमें दो लघु होने चाहिए । परन्तु यह कोई विशेष नियम नहीं है । इस
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