Book Title: Siriwal Chariu Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain Publisher: Bharatiya GyanpithPage 66
________________ श्रीपालचरित ( हिन्दी अनुवाद ) सन्धि १ १ सिद्धपुरके स्वामी सिद्ध मुनीश्वरको प्रणाम कर मैं ( पण्डित नरसेन ) पवित्र, भविकजनोंके लिए मंगल एवं गुणोंसे समृद्ध 'सिद्धचक्र विधान' रूपी ऋद्धि का आख्यान करता हूँ । आदिब्रह्म नाभिनन्दन ( आदिनाथ ) की जय हो दम्भका नाश करनेवाले जिनराज अजितनाथकी जय हो । शुक्लध्यान करनेवाले सम्भवनाथकी जय हो । शुभ परमज्ञानवाले अभिनन्दननाथकी जय हो । कर्मरूपी शत्रुओंके लिए बाधा-स्वरूप सुमतिनाथकी जय हो । रक्तकमलकी आभावाले पद्मनाथकी जय हो । लक्ष्मीरूपी सुन्दर स्त्रीके पास रहनेवाले सुपार्श्वनाथकी जय हो । मोहबन्धनको काटनेवाले चन्द्रप्रभुकी जय हो । शत्रुसमूहका दमन करनेवाले पुष्पदन्तकी जय हो । मोक्षमार्गको साधनेवाले शीतलनाथकी जय हो । भव्यरूपी कमल-सरोवर के लिए हंसस्वरूप श्रेयांसनाथ की जय हो । ज्ञान और करुणाके कोश विमलनाथकी जय हो । प्रमाणोंको जाननेवाले अनन्त जिनकी जय हो । सुवर्ण कान्तिवाले धर्मनाथकी जय हो । शान्तिका विधान करनेवाले शान्ति जिनेश्वरकी जय हो । जीवमात्रसे मित्रता रखनेवाले कुन्थुनाथकी जय हो । निर्वाणमें स्थिरता प्राप्त करनेवाले अरहनाथकी जय हो । फूलोंसे विनोद करनेवाले मल्लिजिनेश्वरकी जय हो । देवेन्द्र-वृन्द द्वारा स्तुतसुव्रतनाथकी जय हो । तीन रत्नों ( सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र ) भूषित शरीर मिनाथ की जय हो । राजमती ( राजुल ) का साथ छोड़नेवाले नेमिनाथकी जय हो । विश्वरूपी कमल लिए एकमात्र सूर्य पार्श्वनाथकी जय हो । वर्द्धमान जिनेश्वरकी जय हो । घत्ता - जो जिन ( भगवान् ) की गुणमाला पढ़ता है, मनमें ध्यान करता है, वह ऋद्धि, वृद्धि, यश और जय प्राप्त करता है तथा बुढ़ापा और कामको आहत करनेवाली सिद्धिरूपी सुन्दर स्त्रीका सुख एवं ( नरसेन कविके द्वारा कथित ) परमपद को प्राप्त करता है ||१|| २ मैं जिनमुखसे निकली हुई श्रेष्ठ, आदरणीय सरस्वती देवीको नमस्कार करता हूँ, जिसके प्रसादसे सुकवि सरस काव्यकी रचना करता है, जिसके प्रसादसे बुधजन शोभा पाते हैं, वह भगवती सरस्वती मुझपर प्रसन्न हों। फिर, मैं पंचपरमेष्ठीको प्रणाम कर तथा जिनवर द्वारा कहे गये धर्मका अनुसरण कर सुन्दर सिद्धचक्र कथा कहता हूँ । स्वामी जगवीर महावीरका समवशरण विपुलाचल पर्वतपर आया । ( राजा ) श्रेणिक अपनी ( रानी) चेलना और परिवारके साथ उनकी पदवन्दना - के लिए चल पड़ा । तीन प्रदक्षिणा देकर उसने उनकी प्रशंसा की और अपना सिर धरतीपर रखकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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