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प्रस्तावना
है तो ( नरसेनके 'सिरिवाल चरिउ'में ) माणिभद्र समुद्र हिलाता है । जहाज पकड़कर सेठका मुख नीचा करता है। सिंहके रथपर बैठकर अम्बादेवी आती है। क्षेत्रपाल कुत्तेपर बैठकर आता है। ज्वालामालिनी आग लगाती है। दसमुँह व्यन्तर भी आता है।
'श्रीपाल रास'में सबसे पहले क्षेत्रपाल रौद्ररूप धारण करता है। फिर ५२ वीरोंसे घिरा माणिभद्र, पूर्णभद्र, कपिल और पिंगल चार देव आते हैं। चक्रेश्वरी सिंहरथपर बैठकर आती है, वह पकड़नेका आदेश देती है । वे उसके मुँहमें गन्दी चीजें भरते हैं । शरीरके टुकड़े करके चारों दिशाओंमें छिटका देते हैं । सेठ थर-थर काँप उठता है। (पृष्ठ ७५, छठा संस्करण )
पं. परिमल्ल यह काम जलदेवतासे करवाते हैं। इस प्रकार 'श्रीपाल रास' और नरसेनके 'सिरिवाल चरिउ' में रत्नमंजूषा ( मदनमंजूषा )के शीलकी रक्षा करनेवाले देवताओंके नामों और कार्यविधिमें बहुत कम अन्तर है। परन्तु इन देवी-देवताओंका उल्लेख न तो दिगम्बरोंके सिद्धचक्र यन्त्रमें है और न श्वेताम्बरों के नवपद मण्डल या मकारके आठ पंखुड़ियोंवाले कमलमें। श्वेताम्बरोंके नवपदमण्डल और आठ पंखुड़ियोंके कमलमें यही अन्तर है कि एकमें णमोकार मन्त्र ( पाँच परमेष्ठी ) उनमें वर्ण एवं दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपका उल्लेख है। जबकि नवकार-कमलमें पाँच परमेष्ठियोंके साथ, प्रत्येक वैकल्पिक दलमें ।
'एसो पंच णमोयारो सब्वपावत्रणासणो ।
मंगलाणं च सव्वेसिं पढम होइ मंगलं' ये दोनों बातें श्वेताम्बर परम्पराके 'नवपदमण्डल' और आठ पंखुड़ियोंके कमलके अनुरूप हैं । परन्तु नरसेनने दिगम्बर परम्पराके 'अ क च ट त प श य' वर्गोंका भी उल्लेख किया है। इसी प्रकार असि आ उ सा चार उत्तम मंगलोंका भी विधान किया है।
यह बातें दिगम्बर परम्पराके विनायक यन्त्रमें है। 'ओं की भी यही स्थिति है। लगता है पं. नरसेनने 'नवपदमण्डल', 'सिद्धचक्रयन्त्र' और 'विनायक तन्त्र'की बातें एकमें मिला दी है। परन्तु चक्रेश्वरी आदि देवियोंका उल्लेख उक्त तीनों ग्रन्थोंमें नहीं है। सम्भवतः शासनदेवताओंके माध्यमसे जिनभक्तिका प्रभाव स्थापित करनेके लिए ही कविने ऐसा किया।
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