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कथावस्तु
भावात्मक और वर्णनात्मक स्थल प्रबन्ध काव्यमें इतिवृत्तमें दो प्रकार के स्थल होते हैं
(१) भावात्मक, और
(२) वर्णनात्मक पहलेका सम्बन्ध हृदयकी रागात्मक चेतनासे है। जबकि दूसरेका सम्बन्ध उन बाह्य परिस्थितियोंसे है, जिनमें मनुष्य रहता है। 'सिरिवाल चरिउ' में दोनों प्रकारके प्रसंगोंका कविने सुन्दर निर्वाह किया है।
भावात्मक वर्णन
भावात्मक स्थलोंको कविने कुशलतापूर्वक सँजोया और सँवारा है । मर्मस्थलको छू लेनेवाले संवादों तथा करुणाको उभारनेवाले दृश्योंका, निपुणतापूर्वक कविने वर्णन किया है। ऐसे स्थलोंमें-मैनासुन्दरीके विवाहका प्रसंग, कुन्दप्रभाका पुत्र-विछोहका दृश्य, मैनासुन्दरीका वियोग, रत्नमंजूषाका विलाप, प्रमुख हैं । खच्चरपर सवार कोढ़ी (श्रीपाल )का करुण व सजीव चित्र कविने उपस्थित किया है
गलित शरीर, सिरपर टेसूके पत्तोंका छत्र । मुनिका निन्दक, पूर्वकर्मोंसे लड़ता हुआ। उसी अपराध और पापसे पीड़ित । घण्टियोंकी ध्वनियोंके साथ बहुत-से ढलते हुए चंवर, शृंगीनादका कोलाहल; नाक, हाथों और पैरोंकी अंगुलियाँ एकदम गली हुई। दूसरे कोढ़ी एकदम उससे मिले हुए।"
मैनासुन्दरीका कोढीसे विवाह कर देनेसे कोई भी प्रसन्न नहीं है। रनिवास रोते हए कह रहा है
"यह कन्या-रत्न कोढ़ीके लिए उपयुक्त नहीं है। जो माला त्रिभवनका सम्मोहन कर सकती है, क्या वह कुत्तेको बाँध देनेसे शोभा पा सकती है ?” (१।१२)
करुणाका एक सुन्दर चित्र देखिए-मैनासुन्दरीका कोढ़ीसे विवाह हो रहा है। विवाहके समय मंगल-गीत गाये जाते हैं. परन्त बेमेल विवाहके कारण स्त्रियाँ अमंगल कर रही हैं। सब दः मैनासुन्दरीके मनमें धीरज है। वह समझती है कि उसे कामदेव ही मिल गया है। वह रोती हुई माँ अ बहनको समझाती है-"विधाताका लिखा हुआ कौन टाल सकता है ? (११४)
श्रीपाल बारह वर्षके लिए प्रवासपर जाता है, तब मैनासुन्दरी उसका आँचल पकड़कर रोकती है। श्रीपाल इस प्रकार रोकनेको अपशकुन बतलाता है, तब मैनासुन्दरी कहती है
"ओ प्रवासपर जानेवाले, तुम मुझपर क्रुद्ध क्यों हो? पहले मैं किसे छोड़ें -अपने प्राणोंको या तुम्हारे आँचलको ? (१२३)
माँ कुन्दप्रभा भी श्रीपालको प्रवासपर जानेसे मना करती है। वह कहती है
"हे पुत्र ! तुम्हें देखकर मुझे सहारा था । हे वत्स ! जबतक मैं तुम्हें अपनी आँखोंसे देखती हूँ, तबतक मैं अपने पति अरिदमनके शोकको कुछ भी नहीं समझती। मैंने आशा करके ही अपने हृदयको धारण किया है। हे पुत्र ! तुम मुझे निराश करके मत जाओ।" ( १।२४)
रत्नमंजूषाके विलापका मनोवैज्ञानिक चित्रण कविने किया है
"हे स्वामी ! तुम कहाँ गये ? हे चम्पा-नरेशके पुत्र श्रीपाल ! हे कनककेतु !! हे कनकमाला !!! हे भाई चित्र और विचित्रवीर, मैं यहाँ हूँ और समुद्रके किनारे मर रही हूँ।........हे नाथ ! हे नाथ !!........ धरतीके स्वामी, हे श्रीपाल ! तुम्हारे बिना जीते हुए भी मैं मरी हुई हूँ।" (१।४२)
__ विलाप करते हुए रत्नमंजूषा कहती है-"जो कुछ मैंने बोया है मैं ही उसे काटूंगी, लेकिन पिताने परदेशीसे मेरा विवाह क्यों किया ?" ।
"काहे बप्प दिण्ण परएसहँ ?॥" ( ११४३ )
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