Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 34
________________ कथावस्तु बोला जाता और खाया जाता, परन्तु लोग मधु (शराब) न तो देते थे और न छते थे। जिसकी सीमाओंपर असंख्य मालाकार थे, परन्तु आत्म-ऋद्धिके लिए विष प्रयोग नहीं था। जिसमें पुष्कर और मगरवाली वहुत बगीचियाँ थीं। वहाँ यह कोई नहीं जानता था कि बगीचियाँ कहाँ हैं। जिसमें नग्न श्रमण श्रावकोंको अनुशासनमें रखते थे। देव, शास्त्र और गुरुकी भक्तिमें वे व्रत धारण करते थे। जिसमें भ्रमर मधुमाह (वसन्त) में मदसे छक जाते थे। लेकिन लोग मधुमाहमें निर्मद और विरक्त थे।" ( १।३० ). सहस्रकूट जिनमन्दिर सहस्रकूट जिनमन्दिरके वैभवका वर्णन उदात्त है। उसकी भव्यता और मोहकताके वर्णनमें कविकी भक्तिभावना निहित है-"सुवर्णसे निर्मित वह लालमणि और रत्नोंसे जुड़ा हुआ था और जो स्फटिक मणियों और मूंगोंसे सजा हुआ था। राजपुत्रोंने उसपर बड़े-बड़े मणि लगा रखे थे। वह सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त मणियोंसे चमक रहा था। उसका मध्य भाग अभीष्ट मोतियोंसे चमक रहा था। उसमें श्रावकोंकी सभा गरुड़के आकारकी बनी हुई थी। उसके चारों ओर इन्द्र नीलमणि लगे हुए थे। उसकी श्रेष्ठ पंक्तियाँ गोमेध रत्नोंसे जड़ी हुई थीं। पुष्कर, गवय, गवाक्ष आदि अनेकों स्वच्छ रत्नोंसे उसकी नीचेकी भूमि जड़ी हुई थी, जो ऐसी लगती थी, मानो शुक्रके उदयमें मोती प्रतिबिम्बित हों। उसके सिंहद्वारपर वज्रके दरवाजे लगे हुए थे।" (११३४) राजा कनककेतु, उसकी स्त्री कनकमाला, उसके पुत्र चित्र और विचित्र तथा उसकी पुत्री रत्नमंजूषाके गणोंका परिचयात्मक वर्णन सन्दर और सजीव है। “उसमें ( हंसद्वीपमें ) विद्याधर राजा कनककेतु था, जिसके सोलह शिखरोंपर स्वर्णपताकाएँ थीं। उसने अपने शरीरसे कामदेवको जीत लिया था। वह कामदेव, राजनीतिके अंगोंको कुछ भी नहीं समझता था। वह अपनी पत्नीमें अनुरक्त था। जो धनकी खेतीकी रक्षा करने में किसान था। जिसके वचनसे विरुद्ध जो भी राजा होता, वह वैसे बहुत प्रकारके राजाओंको नष्ट कर देता। जो दीन और दयनीय लोगोंके लिए कल्पवृक्ष था और जो पापरूपी कलानिधिके नष्ट करनेके लिए दुष्ट था। जो असहनशील लोगोंके लिए प्रलय दिखा देता था और प्रचण्डबाहु, अतुलको तोल लेता था। जो बहुत-से सुख-धर्मका चिन्तन करता था। दिनरात जो जीवकी मन्त्रणा करने में प्रमुख था और जिसने युद्ध के मैदानमें प्रधानोंको नष्ट कर दिया था।" जनाके लिए दुलंभ उस प्रिय पतिकी घरवाली रति, रस, रूपमें सुन्दर थी। दृष्टिसे वह देखती और फिर देखती तो ऐसी लगती जैसे डरी हुई हिरनी हो । (११३१) गजके समान गमन करनेवाली कनकमाला उसकी स्त्री थी। इतनी प्यारी जिस प्रकार मणियोंकी माला हो। कोयलों के समान मधुर बोलनेवाली। वह सती अपने गुरु और प्रियके चरणोंकी वन्दना करती, उसी प्रकार जिस प्रकार भक्तिसे इन्द्राणी इन्द्र के पैर पड़ती है। __उसके प्रचुर गुणवाले दो पुत्र उत्पन्न हुए, जो परोपकारमें सावनके मेघोंके समान थे। निर्मल और पवित्र चित्तवाले । उन्होंने सारे संसारको ढक लिया था। उनका चित्त मोती और कपासके समान स्वच्छ था। एकका नाम चित्र और दूसरेका नाम विचित्र । उनका चित्त एक पलके लिए साहस नहीं छोड़ता था। 'मोतिउ कपासु णं साइचित्त ।' (११३२) तीसरी उनकी बेटी थी-रत्नमंजूषा । वह शीलके आभूषणोंसे यक्त और गम्भीर थी। वह स्नेह और रूपकी सुन्दर अर्गला थी। उसके दोनों नेत्र ऐसे थे मानो शुक्र तारे हों। ( ११३२) इसी प्रकारका एक परिचयात्मक वर्णन प्रस्तुत है-दलवट्टण नगरके राजा धनपाल, उसकी स्त्री, उसके पुत्र और उसकी पुत्रीका "वहाँ ( दलवट्टण नगर ) राजा धनपाल धरतीका पालन करता था। उसे धनद और यक्ष नमस्कार करते थे। उसकी पट्टरानीका नाम वनमाला था। अपनी कोमल भुजाओंसे वह मालतीकी माला थी। ( ११४६ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184