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सिरिवालचरिउ
कर्तव्यका स्मरण कराते समय अपने विषयमें केवल इतना ही कहती है- 'मुझ दासीको मत भूलना।" वह नहीं चाहती कि पतिके मार्गमें रोड़ा बने। परन्तु उसके प्रति स्नेह जतानेके लिए इतना अवश्य कहती है"बारह वर्ष में तुम लौटकर नहीं आते तो मुझे मौतका सहारा ही है।"
श्रीपाल बारह वर्षकी अवधिके पश्चात् लौटकर आता है। मैनासुन्दरी अपने पिता द्वारा किये गये दुर्व्यवहारके बारेमें बताती है । वह श्रीपालसे कहती है कि आप उनसे यह कहें कि वे कम्बल पहनकर और गलेमें कुल्हाड़ी डालकर उपस्थित हों। वह दूत भी भेज देती है। पिताके प्रति इस प्रकारके व्यवहारकी अपेक्षा उससे नहीं की जाती। जो मैनासुन्दरी पिताकी आज्ञाको सिर-आँखोंपर रखकर कोढ़ीसे विवाह करती है और विवाहके बाद १२ वर्ष तक उसके घर रहती है। उसका पिताके प्रति इस प्रकारका व्यवहार लोकसम्मत नहीं है । इस प्रकार वह धार्मिक आस्थाकी प्रतीक पात्र है।
श्रीपाल
. कृतिका नायक-श्रीपाल, सिद्ध पुरुष है, इसलिए उसके कार्य-कलापोंमें मानवीय संवेदना व स्वाभाविकता नहीं है । वह जो कुछ करता है ऐसा लगता है मानो उसे यह करना ही था और यह पहलेसे ही निर्धारित है। वह कहीं भी असफल नहीं होता । महान् उपलब्धियोंके बावजूद भी वह खुश नहीं दिखता और भयंकर त्रासके समय भी उसका मन द्रवित, दुःखी या निराश नहीं होता है। ऐसा लगता है कि वह चेतन नहीं, जड़ है। प्रारम्भसे लेकर अन्त तक, पूरी कृतिमें कहीं भी उसके मानसिक अन्तर्द्वन्द्वका तथा मनःस्थितिके उतार-चढ़ावका चित्रण नहीं मिलता है। वह इस जन्ममें जो कुछ भी है वह पर्वजन्मके कर्मों और पुण्योंका फल है। इसलिए उसका चरित्र, वरदानों और अभिशापोंका परिणाम मात्र है। वरदानोंके कारण वह अतिशय सुन्दर और अजेय है तथा अभिशापोंके कारण वह अतिशय कोढ़ी है। इस प्रकार वह दो चरम स्थितियों में रहता है। ऐसा लगता है कि नायक पूर्वजन्मके कर्मोके हाथका खिलौना है। इसके अतिरिक्त वह जो कुछ है, वह मैनासुन्दरीके द्वारा बनाया हुआ है। मैनासुन्दरी उसे दो बार उबारती है । पूर्वजन्ममें 'सिद्ध-चक्र विधि' द्वारा उसके पापोंको दूर करती है और इस जन्ममें कोढ़ दूर करती है। पूरी कृतिमें वह मैनासुन्दरीके प्रति कृतज्ञ रहता है ।
बारह वर्षको अवधिके लिए प्रवासपर जा रहे श्रीपालके मनमें अपनी माँ और स्त्रीके प्रति कोई संवेदना नहीं है। उसको छोड़नेका उसे कोई दुःख नहीं है। जाते समय माँ उससे कहती है कि पतिके बाद उसका ही सहारा था, अब वह सहारा भी नहीं रहेगा। कुन्दप्रभाके वचन सुनकर किसी भी कठोर-हृदयका मन द्रवित हो सकता है परन्तु श्रीपालपर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। मैनासुन्दरी भी उसके साथ चलने के लिए कहती है परन्तु वह उसे समझा देता है। मैनासुन्दरीसे बिछड़नेका भी श्रीपालको कोई दुःख नहीं है।
धवलसेठके जहाजों को वह पैरोंसे चला देता है, लाख चोरोंको अकेला ही हरा देता है। श्रीपालका चरित्र एक पौराणिक चरित्र है। इसलिए उसके कार्यों में हमको अस्वाभाविकता लगती है। परन्तु जिस उद्देश्य के लिए उसका चरित्र चित्रण किया गया है, उसकी पूर्ति बह करता है। पौराणिक काव्यका नायक इसी प्रकार कार्य करता है । वह सिद्ध पुरुष है, इसलिए अजेय है। इसके अतिरिक्त कवि 'कर्मोके फल' को बताना चाहता है। पूर्वजन्मके कर्मों के कारण ही वह कोढ़ी है, समुद्र में फेंका जाता है और 'डोम कहलाता है। पूर्व जन्मके अच्छे कर्मोके कारण ही वह असफल नहीं होता और मैनासुन्दरीके समान पत्नी पाता है।
धवलसेठ उसे षड्यन्त्र द्वारा समुद्रमें गिरा देता है। उसकी पत्नी रत्नमंजूषाके प्रति दुर्व्यवहार करता है। डोमोंसे मिलकर षड्यन्त्र रचकर उसे डोम सिद्ध कर देता है। अन्तमें जब रत्नमंजूषासे सचाई मालूम होती है तब राजा धनपाल, धवलसेठको मृत्यु दण्ड देनेकी आज्ञा देता है, परन्तु श्रीपाल उसे छुड़ा देता है । वह उससे अपना हिस्सा ले लेता है। ऐसे व्यक्तिके प्रति भी उसके मनमें कोई द्वेष-भाव उत्पन्न नहीं होता है। इसके अतिरिक्त समद्रमें बहते समय भी उसके मनमें धवलसेठके प्रति कोई आक्रोश या प्रतिशोधकी भावना
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