Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 42
________________ रस और अलंकार रस योजना 'सिरिवालचरिउ'में रस योजनाकी वही स्थिति है जो दूसरे अपभ्रंश चरित काव्योंमें है, और चरित काव्योंकी रसात्मक स्थिति यह है कि उसकी अन्तिम परिणति शान्त रसमें होती है । इन काव्योंमें यह आवश्यक नहीं है कि उनमें उपलब्ध रसोंमें अनिवार्य रूपसे अंगांगी भाव हो। यदि अन्तिम परिणतिके आधारपर रसकी मुख्यता मानी जाये, तो यही कहा जा सकता है कि 'सिरिवाल चरिउ'में शान्त रसकी मुख्यता है, नहीं तो विभिन्न प्रसंगोंमें रसोंकी स्वतन्त्र सत्ता भी स्वीकार की जा सकती है। शान्त रसकी मुख्यताके साथ "भक्ति रस के अस्तित्वका भी प्रश्न जुड़ा हुआ है। जैनधर्मकी दार्शनिक प्रतिक्रियामें भक्ति मुक्तिका साक्षात् साधन नहीं है । हाँ, चित्तशुद्धि, वैराग्य आदिके लिए भक्ति उपयोगी है। मैं समझता हूँ कि अन्य अपभ्रंश काव्योंकी तरह आलोच्य कृतिमें भक्तिके प्रसंग और किसी रसके प्रसंगोंसे अधिक प्रसंग हैं। इन प्रसंगोंका विश्लेषण अन्यत्र किया जा चुका है। वैराग्य विरतिके प्रसंग भी इसमें जहाँ-तहाँ उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त शृंगारके संयोग पक्षका बहुत कम वर्णन कवि करता है। मैनासुन्दरीसे नाटकीय विवाह और कोढ़ दूर हो जानेके बाद, यह सम्भावना भी थी कि कवि दोनोंके विलासपूर्ण विवाहित जीवनका चित्रण करेगा, परन्तु ऐसा नहीं होता। ससुरालमें रहनेके लोकापवादसे दुःखी श्रीपाल अपने स्वतन्त्र और पुरुषार्थ-भरे जीवनकी खोजमें बारह वर्षके लिए प्रवासपर जाना चाहता है। मैनासुन्दरी उसे मना करती है, फिर उसके साथ जाना चाहती है और जब वह साथ ले जानेके लिए तैयार नहीं होता तो उससे १२ वर्षमें लौट आनेकी प्रतिज्ञा करवाती है और उसे जो लम्बा-चौड़ा उपदेश देती है उसमें कविकी उपदेशात्मकताकी झलक मिलती है। कवि यह संकेत अवश्य करता है कि उसने "चित्रशाला रति मन्दिर में क्रीड़ा करते हुए यह उपदेश दिया, परन्तु क्रीड़ाओंका कवि उल्लेख नहीं करता। उपदेशमें वह दो बातें कहती है-(१) जिनभक्ति ( २ ) उसे विस्मृत न करे। वियोगके समय वह अवश्य प्रियका अंचल पकड़ लेती है। वह मध्ययुगीन वियोगिनीकी तरह आचरण करती है और कहती है "पढमं पी को मुक्कमि णिय पाण कि अंचलं तुज्झ।" इसी क्रममें माँ कुन्दप्रभा भी अपने प्रवासी पुत्रको सम्बोधित करती है, यह वियोग शृंगार और वात्सल्यका मिला-जुला प्रसंग समझना चाहिए । वह कहती है "हे पुत्र ! जब मैं तुम्हें अपनी आँखोंसे देख लेती हूँ तो अपने पति अरिदमनका दुःख भूल जाती हूँ। मैं तुम्हारी आशाके सहारे जीवित हूँ, तुम मुझे निराश करके जा रहे हो।" ऐसा प्रतीत होता है कि कविकी शृंगारके संयोगपक्षके चित्रणमें अभिरुचि नहीं है । हंसडीपके राजाकी कन्या रत्नमंजुषासे विवाह होनेके बाद श्रीपाल अपनी नयी पत्नीको पिछली बातें बताता है । कवि उनकी विलास लीलाका चित्रण नहीं करता । हाँ, जब धवलसेठकी कूट योजनाके फलस्वरूप वह अपने प्रिय श्रीपालसे बिछुड़कर सेठके चंगुल में फँस जाती है, तो विलाप करती है। इसमें करुण रसका आभास है । आभास यथार्थमें इसलिए नहीं बदल पाता, क्योंकि श्रीपालके जीवनकी पूर्व घटनाओंकी जानकारी होने और दैवी सहायता मिलनेके कारण-उसके अन्तर्मनमें प्रियसे मिलनेकी सम्भावना बनी हुई है। उसे यह ज्ञात है कि मुनिवरका कहा असत्य नहीं हो सकता। अपनी इस सारी वियोग वेदनामें वह एक बात ऐसी कह देती है, उससे युगके यथार्थके मर्मको छू लेती है। वह पिताको उलाहना देती है कि उसका विवाह परदेशीसे क्यों किया ? इस कथनसे मध्ययुगकी भारतीय नारीकी घरघुस चेतनाका बोध होता है। उस युगमें संघर्ष और साहसकी भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184