Book Title: Siriwal Chariu Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain Publisher: Bharatiya GyanpithPage 43
________________ २८ सिरिवालचरिउ नाममात्रके लिए भी नहीं थी। बादमें उसकी भेंट होती है गुणमालासे । विवाह होनेपर भी संयोग श्रृंगारका वर्णन, अवणित रह जाता है। उसके बाद एक प्रकारसे श्रीपाल विवाह यात्राएँ करता है, जिनमें समस्यापूर्ति, आकस्मिकता और निमित्त आदिका उल्लेख है । शृंगारके वर्णनके प्रति कवि तटस्थ है । यह एक अजीब बात है कि कवि अपने नायकको भोग-विलासके प्रचुर साधनोंका एकाधिकार देकर भी, उसके उपभोगका चित्रण नहीं करता । दूसरी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह है कि कवि नरसेन सामूहिक भोग-विलासका वर्णन नहीं करता, परन्तु सामूहिक वैराग्य और दीक्षाका चित्रण अवश्य करता है। __ 'वीर' रसके भी प्रसंग आलोच्य कृतिमें पर्याप्त थे, परन्तु श्रीपालका पुरुषार्थ, पर्वसिद्ध है (पुण्यफलके सिद्धान्तके कारण ), इसलिए शक्ति प्रदर्शनके बिना ही सब कुछ मिल जाता है। जहाँ वह शक्ति प्रदर्शन करता भी है वहाँ इतनी अनुकूलताएँ और निश्चित आशु सफलताएँ उसे घेर लेती हैं कि वीर रसकी अनुभूति होते-होते रह जाती है। उदाहरणके लिए-लाख-चोरोंको घटनाके समय श्रीपाल वीरोचित उत्साह दिखा सकता था परन्तु कवि यह कहकर छुट्टी देता है कि चोर उसी प्रकार भाग गये जिस प्रकार सिंहनादसे कायरजन भाग खड़े होते हैं। वीर रसका साक्षात् प्रसंग उस समय उपस्थित होता है जब वह अपने स्वर्गीय पिताका राज्य पानेके लिए चाचा वीरदमनपर आक्रमण करता है। युद्धके लिए कूच करते ही धरती हिल उठती है, योद्धाओं और उनकी पत्नियोंकी वीरता और दर्पकी उक्तियोंकी झड़ी लग जाती है। दूतकी वार्ता असफल होते ही रणदुन्दुभी बज उठती है और विजयश्री श्रीपालका वरण कर लेती है। 'बीभत्सका' दृश्य तब उपस्थित होता है जब ७०० कोढ़ी राजाओंके काफिलेका नेतृत्व करता हुआ, कोढ़ी राजा श्रीपाल उज्जैन पहुँचता है और रौद्र रसका इससे बढ़कर उदाहरण और क्या हो सकता है कि स्वयं पिता कन्याके तर्कपर अपने झूठे दम्भ और प्रतिष्ठाके कारण उसका विवाह एक ऐसे कोढ़ी राजासे कर दे कि जिसके हाथ-पैर गल गये हों। कुल मिलाकर कवि नरसेन इस छोटी-सी रचनामें सम्भव रसकी योजना अपने मुख्य उद्देश्यके अनुरूप करने में सफल है । वह श्रृंगारके मानसिक और भौतिक पक्षका वर्णन लगभग नहीं करता। भक्ति और शान्त रसके वर्णनमें वह विशेष सक्रिय है। विप्रलम्भसे युक्त करुण, वीर, बीभत्स और रौद्रकी संक्षिप्त किन्तु मार्मिक अभिव्यक्ति आलोच्य कृतिमें है। समूची कथा जिनभक्ति और विरतिके भावात्मक धरातलपर बहती है । अलंकार योजना सरस्वतीकी वन्दना करते हुए कवि नरसेन कहता है कि सरस्वतीके प्रसादसे सुकवि रसवन्त काव्य करता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कवि रसके साथ अलंकारकी उपेक्षा करता है। इसमें सादृश्य । अर्थात् उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार प्रमुख हैं। कवि अलंकारोंका प्रयोग वर्णनात्मक व भावात्मक दोनोंमें करता है, यह उसकी विशेषता है। वृत्तोंके आकर गौतमकी वाणीकी तुलना वह उस समुद्रसे करता है कि जिससे ज्ञानकी लहर उठी हो। ( २) __शब्द मैत्री और यमक उसे विशेष प्रिय हैं । अवन्ती, सहस्रकूट जिनमन्दिर और कोढ़ी राजाके चित्रण, इस सन्दर्भ में उदाहरित है।। कहीं-कहीं यमकमें श्लेषका भी प्रयोग है और खासकर चरणके अन्तमें तूकके साथ यमक देनेकी प्रवृत्ति है, जैसे सामिउ, गुसामिउ ( १।१० ); कुछ उपमाएँ कविकी मौलिक हैं, जैसे-कपासकी उपमा। कनककेतुके पुत्रोंके चित्तको मोती और कपासकी उपमा दी है यह नयी उपमा है । "मोतिउ कपासु णं साइचित्त ।" ( Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184