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भाग्यवादको दार्शनिक पृष्ठभूमि
‘सिरिवालचरिउ'की कथावस्तु भाग्यवादके प्रति दृढ़ विश्वासकी धुरीपर घूमती है । 'भाग्य'से कविका तात्पर्य है-'पूर्व संचित कर्म । अर्थात् मनुष्य अपने भाग्यका स्वयं निर्माण करता है। कर्मोके संचित फलोंको वह भोगता है । भाग्यवादकी इसी पृष्ठभूमिपर 'सिरिवालचरिउ'की कथावस्तु गठित है। कृतिमें अनेक प्रसंगोंमें 'कर्म के फल' व 'भाग्यके प्रति आस्था का जिक्र किया गया है। यही 'सिरिवाल चरिउ'की दार्शनिक पृष्ठभूमि है।
मैनासुन्दरी पिता द्वारा आरोपित जीवन जीनेकी अपेक्षा अपनी नियतिका जीवन जीना पसन्द करती है। पिता द्वारा तय किये गये वरको ही वह स्वीकार कर लेती है। पिता जब उससे उसकी पसन्दका वर चुनने के लिए कहता है तो वह उत्तर देती है
"माँ-बाप विवाह करते हैं, उसके बाद अपने ही कर्म आगे आते हैं।....शुभ-अशुभ कर्म, जीवन में सबको होते हैं । त्रिगुप्ति मुनीश्वरने यह कहा है कि कर्मसे मनुष्य रंक होता है और कर्मसे राजा । जो कर्म अपने माथेपर लिख दिया गया है, उसे कौन मेट सकता है ? वह तो विधिका विधान है।" (११९)
कोढ़ी श्रीपाल जो कुछ है, वह उसके पूर्वजन्मका फल ही है। वह कोढ़ी इसलिए है कि उसने पूर्वजन्ममें मुनिकी निन्दा की थी। उसके वर्तमानमें उसके भूतके कर्मों का फल निहित है। कोढ़ी श्रीपालके लिए कहा गया है
"मनिका निन्दक, पर्वकर्मोंसे लड़ता हआ। उसी अपराध और पापसे पीड़ित ।" ( १११०)
मैनासुन्दरीका विवाह कोढ़ीसे कर दिया जाता है। विवाहके समय मंगलगीत गाये जाते हैं, परन्तु स्त्रियाँ अमंगल कर रही हैं। इस अवसरपर मैनासुन्दरी अपनी बहन और माँ को समझाती है
"विधाताका लिखा हुआ कौन टाल सकता है ?" ( १११४)
कोढ़ीसे अपनी कन्याका विवाह कर देनेके कारण पयपाल पश्चात्ताप करता है। परन्तु वह इसे स्वयंका दोष न मानकर कर्मका परिणाम बतलाता है। वह कहता है
"इसमें मेरा क्या दोष, क्योंकि शुभ-अशुभ कर्म ही परिणत होकर सब कुछ करते हैं।' ( १।१५)
धवलसेठकी कुचालसे श्रीपालको समुद्र में गिरा दिया जाता है। रत्नमंजूषा विलाप करती है। पहले तो वह पिताको उलाहना देती है कि उसने परदेशीसे उसका विवाह क्यों किया? परन्तु बादमें वह इसे कर्मका ही फल मानती है। वह कहती है
"जो कुछ मैंने बोया है, खिन्न मैं उसे सहँगी। लेकिन पिताने परदेशीसे मेरा विवाह क्यों किया ? उसने कहा था कि किसी नैमित्तिकने बताया था, उसीके अनुसार मैंने तुम्हारा विवाह किया था। हे पुत्री ! सबका कर्मसे विवाह बलवान होता है।" ( ११४३)
इसी सन्दर्भमें आगे रत्नमंजूषा विलाप करती हुई अपने पूर्वजन्मके कर्मों के विषयमें कहती है--
"हे स्वामी! दूसरे जन्ममें मैंने ऐसा क्या किया जो जन्मान्तरमें मुझे निरन्तर दुःख झेलने पड़ रहे हैं।" ( ११४४)
रत्नमंजूषाको उसकी सखियाँ समझाती हैं"जो ऋण संचित किया है, उसे देना ही होगा। इसे कर्मों के अन्तराय समझना चाहिए।" (११४३) श्रीपालको रस्सी काटकर समुद्रमें गिरा दिया जाता है। उसके लिए कहा गया है"कर्मसे नचाया गया वह समुद्रमें गिर गया।" ( ११४५ ) श्रीपालको धवलसेठ, डोम सिद्ध करता है। परन्तु जब वास्तविकता प्रकट होती है तब राजा धनपाल
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