Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 44
________________ जिन-भक्ति धामिक-वर्णन विभिन्न धर्मावलम्बी अपने इष्ट देवताओंकी पूजा विभिन्न कर्मकाण्डोंके माध्यमसे करते हैं। अन्धविश्वास और भयके कारण मनुष्य धर्मका पल्ला पकड़ता है। इन्हीं अन्ध-विश्वासोंके साथ पूर्वजन्मका विश्वास भी जुड़ा हुआ है। व्रत, उपवास, तप आदिके माध्यमसे वह धार्मिक-साधना करता है। प्रस्तुत कृतिमें इस प्रकारके अन्धविश्वास, व्रत, तप और उपवासकी सामग्रीकी प्रचुरता है। पूरी कृति, जैनधर्म और उससे सम्बन्धित कर्मकाण्डोंसे भरी पड़ी है। "सिरिवालचरिउ'का मुख्य उद्देश्य ही 'सिद्धचक्र विधि'के महत्त्वका प्रतिपादन करना है। 'सिद्धचक्र विधि' जैनधर्मकी कर्मकाण्ड साधनाका एक साधन है। इसलिए सम्पूर्ण कृतिमें अनेक स्थानोंपर जैनधर्मसे सम्बन्धित सामग्री उपलब्ध है। जैनधर्मसे सम्बन्धित विवरणको प्रमुख रूपसे तीन भागोंमें विभाजित किया जा सकता है (१) स्तुतिके रूपमें। (२) जिनभगवानसे सम्बन्धित विवरण व प्रसंगके रूपमें । (३) उपदेशके रूपमें, 'सिद्धचक्र विधि'के प्रसंगके रूपमें । स्तुतिके रूप में यह जिनभक्ति निम्नलिखित स्थलोंमें देखी जा सकती है। मंगलाचरण १११; सहस्रकूट जिनमन्दिरमें श्रीपाल द्वारा ११३५; मदनासुन्दरी श्रीपालका कोढ़ दूर करनेके लिए जिनमुनियोंकी स्तुति करती है १११७ । सहस्रकूट मन्दिर में श्रीपाल जिनेन्द्रका अभिषेक करते समय स्तुति करता है ।१९ । जिनेन्द्र भगवानसे सम्बन्धित वर्णन कई स्थलों पर मिलते हैं। जैसे श५, १२८, ११९, १११६, १११७, १११९, १।२०, १।२५, ११३६, ११४०, ११४१, ११४६, २।१२, २।१४, २।२७, २।३० । धर्मोपदेश और सिद्धचक्र विधानकी महत्ताके प्रसंगमें भी कुछ विवरण उपलब्ध है ११२, ११२, १।१४, १।१८, १११७, १११९, ११२२, २।३०, २।३२, २।३३, २।३५, २।३४ और २॥३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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