Book Title: Siriwal Chariu Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain Publisher: Bharatiya GyanpithPage 31
________________ सिरिवालचरिउ सात सौ और तेलंग देशमें एक हजार कन्याओंसे वह विवाह करता है। इस प्रकार विवाह यात्राओंसे लौटकर वह दलवट्टण नगर आता है। एक दिन वह सोचता है कि अब यदि वह उज्जैन नहीं लौटता, तो मैनासुन्दरी मोक्ष देनेवाली दीक्षा ले लेगी। उसने राजा धनपालसे आज्ञा ली और उज्जनके लिए वह चल पड़ता है। ___ रास्तेमें सौराष्ट्र में पांच सौ और महाराष्ट्रमें भी पांच सौ कन्याओंसे वह विवाह करता है। गुजरातकी चार सौ कन्याओंसे वह विवाह करता है। मेवाड़की दो सौ कन्याओंसे वह विवाह करता है। अन्तर्वेदकी ९६ कन्याओंसे वह विवाह करता है । इस प्रकार बारह वर्ष पूरे होते ही वह उज्जैन नगरीमें पहुँचता है । सारे नगरमें हलचल मच जाती है। लोग समझते हैं कि कोई राजा चढ़ाई करने आया है । श्रीपाल अकेला मैनासुन्दरीसे मिलने जाता है । मैनासुन्दरी अपनी सास से कहती है-"यदि आपका बेटा आज भी नहीं आया तो मैं दीक्षा ले लँगी।" जब श्रीपालकी माँ उसे एक दिन रुक जाने के लिए कहती है तो मैनासुन्दरी साससे कहती हैहे माँ ! शत्रुने पिताजीको घेर लिया है । श्रीपाल यदि आयेगा भी तो कैसे आयेगा। उसी समय श्रीपाल आ जाता है। श्रीपाल मैनासुन्दरीको साथ लेकर वहाँ जाता है जहाँ सेनाका पड़ाव है। सभी रानियाँ मैनासुन्दरीके पैरों पड़ती हैं। मैनासुन्दरी श्रीपालसे कहती है-"मेरे पिताने मेरे आचरणका उपहास किया है और सभामें मुझे दुतकारा है। इसलिए उनसे यह कहा जाये कि वे कम्बल पहनकर गलेमें कुल्हाड़ी डालकर ही हमसे भेंट करने आयें, नहीं तो उनकी कुशल नहीं है।" ऐसा कहकर मैनासुन्दरी एक दूतको यह सन्देश लेकर भेज देती है। दूतका सन्देश सुनकर राजा क्रोधित हो जाता है। परन्तु मन्त्रीके समझानेपर शान्त हो जाता है। दूत आकर सब वृत्तान्त सुना देता है । श्रीपाल मैनासुन्दरी को समझाता है और वह स्वयं ससुरसे मिलने जाता है। ससुरके साथ वह अपने बाल-सखा सात सौ राजाओंसे भी भेंट करता है। __ वह अनेक राजपुत्रोंसे सेवा कराता है। बहुत-से देश और उपराज्यों को साधता है। उसके अन्त:पुरमें कुल ८,००० हजार रानियाँ हैं। वह अपनी चतुरंग सेना व अन्तःपुरके साथ चम्पानगरीमें जाता है जहाँ उसका चाचा वीरदमन है । श्रीपाल अपने चाचाके पास दूत भेजता है । दूत जाकर कहता है-"तुम्हारा भतीजा श्रीपाल आया है, वह तुम्हें बुला रहा है। तुम उसका पुरुषार्थ स्वीकार करते हो?" दूतकी बातपर क्रोधित होकर वीरदमन कहता है-"मैं श्रीपालको युद्धमें हराकर बन्दी बनाऊँगा।" वह रणभेरी बजवा देता है और श्रीपाल से युद्धके लिए निकल पड़ता है। दूत आकर सारा वृत्तान्त सुनाता है। श्रीपाल भी युद्ध में आ डटता है। वीरदमन हार जाता है। श्रीपाल उसे क्षमा कर देता है । वीरदमन श्रीपालको राज्य सौंपकर क्षमा याचना करता है। __श्रीपाल संजय महामुनिसे पूछता है-"किस पुण्यसे मैं अतुलनीय योद्धा और तीनों लोकोंमें विख्यात हुआ ? किस कर्मसे कोढ़ी हुआ, समुद्रमें फेंका गया, डोम कहलाया और मैनासुन्दरी मेरी भक्त हुई ?' मुनिवर श्रीपालसे उसके पूर्वजन्म की कथा कहते हैं-"तुमने एक अवधिज्ञानी मुनिको कोढ़ी कहा था। नदी किनारे शिलापर बैठे मुनिको तुमने पानीमें ढकेल दिया था। तपस्यामें लीन मुनिको तुमने डोम कहा था। तुमने 'सिद्धचक्रविधि' अंगीकार की थी इसलिए तुम इन संकटोंसे निकल सके।" श्रीपाल यह सुनकर अपनी आठ हजार रानियों सहित व्रत करता है। उनके साथ अन्य अनेक राजकुमार भी 'सिद्धचक्रवत' ग्रहण करते हैं। इस प्रकार श्रीपाल जीवनमें मनोवांछित फल प्राप्त करके, अन्तमें दीक्षा ले लेता है। उसके साथ उसकी अट्ठारह हजार रानियाँ भी संन्यासी हो जाती हैं। अन्तमें 'सिद्धचक्रविधि' का महत्त्व बतलाया गया है। यह व्रत दुःखोंको हरता है और सुख देनेवाला और मोक्ष प्रदान करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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