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प्रस्तावना
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( २ ) इस जीवन में जो उसे कोढ़ी होना पड़ता है, डोम कहलाना पड़ता है और समुद्रमें गिरना पड़ता है, वह पूर्वजन्मके कर्मके कारण ।
( ३ ) मदनासुन्दरी की सिद्धान्तवादितासे उसका पिता अप्रसन्न होकर कोढ़ीसे विवाह कर देता है । ( ४ ) सिद्धचक्र विधान और सेवासे मदनासुन्दरी सबको चंगा कर लेती है ।
(५) 'घरजँवाई' के कलंकसे बचनेके लिए श्रीपाल साहसी यात्राएँ करता है और अपनी उद्योगशीलता और उदार साहसका परिचय देता है ।
( ६ ) धवलसेठ खलनायक है ।
( ८ ) कतिपय घटनाओं और चरित्रों में थोड़ी-बहुत भिन्नता होते हुए भी केन्द्रीयकथा और उसके लक्ष्य में मूलभूत समानता है। क्योंकि यह दोनों परम्पराएँ मानती हैं कि श्रीपाल और मदनासुन्दरी जीवन में जो कुछ सिद्धियाँ पाते हैं, वह पूर्वजन्मके फल और सिद्धचक्रविधानकी महिमाके कारण ।
५. मूल प्रेरणास्रोत
मुख्य प्रश्न है कि कथाकी मूलप्रेरणा क्या है ? 'सिद्धचक्र विधान' या 'नवपदमण्डल' की पूजाको महिमा बताना, उसकी मूल समस्या नहीं है; वह तो समस्याका धार्मिक अथवा दार्शनिक समाधान है । उसकी मूल प्रेरणा इस समस्याका हल खोजना है कि मनुष्य अपना जीवन किसी दूसरेके भरोसे जीता है, या अपनी कर्मचेतनापर ? भाग्य मनुष्यकी एक पूर्व निर्धारित ठीक है कि जिसपर उसे चलना है, या वह उसके ही पूर्वसंचित कर्मोंका फल है ? दूसरे शब्दों में मनुष्य किसी तर्कहीन दैवी विधानके अन्तर्गत अपना जीवन जीता है या वह अपनी ही पूर्वनिर्धारित उस कर्मचेतना के बलपर जीवन जीता है कि जिसका विधायक वह स्वयं है ? सुरसुन्दरी और मयनासुन्दरी इन्हीं दो विचारचेतनाओंके प्रतीक पात्र हैं । चूँकि जनदर्शन कर्मवादका पुरस्कर्ता दर्शन है, अतः वह दूसरी विचारचेतनापर विशेष जोर देता है । यही कारण है कि जब मयनासुन्दरी ऋद्धि-सिद्धियोंके चरम बिन्दुपर होती है, तब रास्तेमें लूटी गयी बेचारी सुरसुन्दरी, उसके सम्मुख नर्तकीके रूपमें पेश की जाती है । मैं समझता हूँ कि व्यापक मानवी सन्दर्भ में समस्याका यह हल धार्मिक, एकांगी और न्यायचेतनासे शून्य प्रतीत होगा; फिर भी यह तो स्वीकारना ही पड़ता है कि आलोच्य कृतिमें आकस्मिकताओंके तारतम्य में मानवजीवनके उतार-चढ़ावोंका सुन्दर और सजीव चित्रण है । कुल मिलाकर यह कथा जीवनमें उद्यमशीलता, आचरणको पवित्रता और धार्मिक जीवनकी प्रेरणा देती है; क्योंकि उद्यम के बिना जीवन दरिद्र है, आचरणकी पवित्रताके बिना अन्तरिक सुख-शान्ति असम्भव है और धार्मिक चेतना के बिना मनुष्य संवेदना और आशाकी उस आन्तरिक शक्तिको खो देगा, जो बाह्य निराशा और संकटमें जीवनको आन्तरिक विवेक और शक्ति देती है
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नरसेन कविने अपने 'सिरिवाल चरिउ' में कुछ परिवर्तन किये हैं । उदाहरण के लिए कथाको संक्षिप्त बनाने के लिए वह चम्पापुरसे लेकर उज्जैन नगरी में आने तककी घटनाओंका उल्लेख नहीं करता । उज्जैनसे अपनी कथा प्रारम्भ कर, वह मूल समस्यापर आ जाता है । पहुपाल क्रोधके आवेशमें स्वयं मयनासुन्दरी कोढ़ीराजको दे देता है । सुरसुन्दरीका विवाह कौशाम्बीके शृंगारसिंहसे करवाता है, हरिवाहन से नहीं । अपनी सास कुन्दप्रभासे जब मयनासुन्दरीको यह मालूम हो जाता है कि श्रीपाल राजकुमार है, तभी वह उसका कोढ़ दूर करनेके लिए सिद्धचक्र विधान करती है । अर्थात् कर्मचेतनाके बावजूद उसमें कुलीनताका बोध बराबर है ।
६. नन्दीश्वर द्वीप पूजा
'सिरिवाल चरिउ' में जिस 'सिद्धचक्र यन्त्र' का वर्णन है, उसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराके प्रचलित यन्त्रोंसे भिन्नता है । इसके 'सिद्धचक्र विधान' को 'नन्दीश्वर पर्व' या 'अष्टाह्निका पूजाविधि' भी कहते हैं। परम्पराके अनुसार यह पर्व प्रति वर्ष, कार्तिक, फागुन, आसाढ़के अन्तिम आठ दिनोंमें पड़ता है ।
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