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सिरिवालचरिउ
विशुद्ध रूपसे यह धार्मिक पर्व है। इन दिनों देवता लोग नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर ५२ अकृत्रिम चैत्यालयोंमें देवपूजा कर पुण्यार्जन करते हैं । अढाई द्वीप यानी मनुष्य क्षेत्रके लोग, चूंकि वहाँ नहीं जा सकते, इसलिए अपने गाँव या मन्दिरमें परोक्ष रूपसे उसकी प्रतीक पूजा करते हैं। मनुष्य क्षेत्रसे नन्दीश्वर द्वीप तक कुल आठ द्वीप हैं-१. जम्बूद्वीप, २. धातकी खण्ड, ३. पुष्करवर, ४. वारुणीवर, ५. क्षीरवर, ६. घृतवर, ७. इक्षुवर और ८. नन्दीश्वर द्वीप। इसे अढ़ाई द्वीपपूजा कहते हैं । एक पूजा तो संस्कृत-प्राकृत मिश्रित है। इसके अतिरिक्त भाषापूजा लिखनेवाले हैं--पण्डित द्यानतराम अग्रवाल आगरा, पं. टेकचन्द भद्रपुर, पं. डा इत्यादि । वस्तुस्थिति यह है कि अढाई द्वीपपजा प्राचीन है, परन्तु श्रीपालके माध्यमसे वह १३-१४वीं सदी में अधिक लोकप्रिय हुई। कहते हैं पोदनपुरका एक विद्याधर राजा, किसी मुनिसे नन्दीश्वर द्वीपकी महिमा सुनकर विमानसे वहाँसे जाता है। उसका विमान मानुषोत्तर पर्वतसे टकराकर चूर-चूर हो जाता है । मरकर वह देव होता है, नन्दीश्वर द्वीपमें पूजा करता है और उसके फलसे अगले जन्ममें मोक्ष प्राप्त करता है । उसकी पत्नी सोमारानी भी यह पूजा करती है । तीसरा सन्दर्भ है राजा हरिषेणका । अयोध्यामें सूर्यवंशी राजा हरिषेण था। वह अपनी पत्नी गन्धर्वसेनाके साथ दो चारणमनियोंके दर्शन करता है और उनसे अपने पर्वजन्म पूछता है । मुनि बताते हैं कि पूर्वभवमें कुबेर वैश्यकी सुन्दरी नामक पत्नीके तीन पुत्र थे-श्रीवर्मा, जयकीर्ति
और जयचन्द। तीनोंने उस भवमें नन्दीश्वर व्रतका पालन किया । उसके फलसे श्रीवर्मा इस भवमें हरिषेण बना और शेष दो भाई-पूर्वभव बतानेवाले स्वयं चारणमुनि । हरिषेण तप कर मोक्ष प्राप्त करता है । एक हरिषेण नामका १०वाँ चक्रवर्ती राजा भी हुआ है। उसका समय है बीसवें तीर्थंकर, मुनिसुव्रतका शासनकाल । उपलब्ध तथ्योंके आधारपर यह कहना कठिन है कि दोनों हरिषेण एक हैं या अलग-अलग । एक सम्भावना यह की जा सकती है कि नन्दीश्वरद्वीप पूजा प्राचीन थी, बादमें 'सिद्धचक्र' या 'नवपद विधिपूजा' से वह सम्बद्ध कर दी गयी। बादमें श्रीपालके आख्यानने उसे पुराणका रूप दिया। दोनों परम्पराएँ, कथाका प्रारम्भ गौतम गणधरसे करती हैं, परन्तु तथ्योंकी उक्त भिन्नतासे सिद्ध है कि कथाकार, समय और क्षेत्रीय आवश्यकताओंके अनुसार उसमें परिवर्तन करते रहे। ७. सिद्धचक्र यन्त्र और नवपदमण्डल
सिद्धचक्र या नवपद विधिकी यन्त्ररचनाके मलमें पंच परमेष्ठी या णमोकार मन्त्र है, परन्तु दिगम्बर परम्पराके यन्त्र में केवल णमोकार अरहंताणं है, जबकि श्वेताम्बर परम्परामें पाँच परमेष्ठियोंका उल्लेख है, जैसा कि संलग्न चित्रोंसे स्पष्ट है । यह अब भी ऐतिहासिक खोजका विषय है कि सिद्धचक्र यन्त्र कब और कैसे अस्तित्वमें आया ? उसका कहीं तान्त्रिक साधनासे तो सम्बन्ध नहीं है ?
'सिरिवाल चरिउ' में मयनासुन्दरीके पूछनेपर पापका हरण करनेवाले समाधिगुप्त मुनि कहते हैं
'सिद्धचक्र' सद्भावसे लेना चाहिए, अष्टाह्निका करनी चाहिए। आठ दिन सिद्ध चक्रका विधान करना चाहिए और आठदलके सिद्धचक्र दलके सिद्धचक्र यन्त्रकी आराधना करनी चाहिए। अ सि आ उ सा परममन्त्रको उसमें लिखें। कूटसहित तीन वलय (वृत्त) हों। उसमें ओंकारको कौन छोड़ता है। चार कोनोंमें आठ त्रिशूल लिखे जायें। बीचमें पाँच परमेष्ठी लिखे जायें। उसमें चार मंगलोत्तम लिखे जायें। विचारकर जिनधर्म के अनुसार पूजा की जाये। फिर प्रत्येक दलमें समस्त आठ ( वर्ग क च ट प आदि ) लिखे जायें। दलके भीतर, सुन्दर दर्शन-लाभ-चरित्र और तप लिखा जाये ।
फिर चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, परमेश्वरी अम्बा, पद्मिनी, दस दिशापाल भालसहित यक्षेश्वर गोमुख । फिर मण्डलके बाहर मणिभद्र । फिर दसमुख नामक व्यन्तरेन्द्र । प्रतिदिन चारों ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिए । इन्द्रियप्रसारको रोको और आठों दिन एक चित्त रहो।"
'नवपद मण्डल' और 'सिद्ध चक्र यन्त्र'से जब हम नरसेनके 'सिद्ध चक्र यन्त्र'की तुलना करते हैं तो उसमें चक्रेश्वरीदेवी, ज्वालामालिनी आदि शासन देवी आदि यक्ष और व्यन्तरका भी उल्लेख है । यह उल्लेख साभिप्राय है। क्योंकि ये धवलसेठसे रत्नमंजूषाकी शीलकी रक्षा करते हैं। जब रत्नमंजूषा सहायताके लिए पुकारती
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