Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 23
________________ सिरिवालचरिउ द्वीप पहुँचकर राजदरबारमें उपहार लेकर जाता है । वह भांडोंकी मददसे श्रीपालको डोम सिद्ध करनेका कुचक्र करता है, परन्तु भण्डाफोड़ हो जानेसे उसे निराशा हाथ लगती है । वह रातमें गोहके सहारे श्रीपालका वध करने दीवालपर चढ़ता है, परन्तु गिरकर मर जाता है। उसका धन मित्रोंमें बाँट दिया जाता है। कोंकण द्वीपमें भी उसका मदनमंजरीसे विवाह पहले ही हो चुकता है। एक सार्थवाह कुण्डलपुरके राजाकी कन्या भुवनमालाका पता देता है। श्रीपाल वीणाप्रतियोगितामें उसे जीत लेता है। उससे विवाह कर वह कंचनपुरकी कन्या त्रैलोक्यसुन्दरीके स्वयंवरमें जाता है, कन्या उसका वरण करती है। वहाँसे वह दलवट्टण नगर जाता है। वह समस्यापूर्ति कर श्रृंगारसुन्दरीसे विवाह करता है। उत्तर-प्रत्युत्तर पुतलीके माध्यमसे होता है। फिर वह कोल्लागपुरमें जाकर जयसुन्दरीसे विवाह करता है। उसे मयनासुन्दरीकी याद आती है। वह अपनी आठों पत्नियोंके साथ मरहट्ठ, सौराष्ट्र, मेवाड़, लाट, भोट आदि देशोंको जीतता हुआ उज्जैन आ जाता है। चौथे खण्डमें माँ और पत्नीसे भेंट करता है। वह अपने ससुर राजपालको बुलाता है। नाटकके आयोजनमें मयनासुन्दरीकी बड़ी बहन सुरसुन्दरी नर्तकीके रूपमें उपस्थित है। रास्तेमें उसका पति लूट लिया जाता है और वह बेच दी जाती है। विधिका खेल कि उसे नर्तकी बनना पडता है। यह है उक्त प्रश्नका उत्तर कि मनुष्य जो कुछ है वह अपने कर्मके कारण । श्रीपाल, चाचा अजितसेनपर आक्रमण करता है। घमासान लड़ाईके बाद, अंगरक्षक उसे बाँधकर ले आते हैं। श्रीपाल उन्हें मुक्त करता है, वह दीक्षा ले लेता है। श्रीपाल राज-काज सम्हालता है। मुनि अजितसेन अवधिज्ञानी बनकर चम्पापुर आता है। श्रीपाल वन्दनाभक्तिके लिए जाता है। उपदेश ग्रहण करनेके बाद वह, मनिवरसे वर्तमान जीवनकी सफलताओंविफलताओंके बारेमें पूछता है । मनि बतलाते हैं-"हिरण्यपरमें राजा श्रीकान्त-रानी श्रीमती थे। आखेटके व्यसनके कारण राजाने कई काम किये । जैसे १. राजाका पशुओंको मारना । २. कायोत्सर्गमें खड़े रोगी मुनिको सताना । ३. मुनिको नदीमें ढकेलना। ४. गोचरीके लिए जाते हुए मुनिसे अपशब्द कहना । ५. मनिके समझानेपर सिद्धचक्र-विधान करना। ६. उसके सातसौ आदमियोंका राजा सिंहराजका उपद्रव करना, सिंहराज द्वारा उसकी हत्या कर देना। इन्हीं कर्मोंके फलस्वरूप श्रीपाल, तुम्हें यह सब सहन करना पड़ा। सिंहराज हो मुनि अजितसेन है और जिन सखियोंने सिद्धचक्रका समर्थन किया था, वे ही तुम्हारी पत्नियाँ बनती हैं। तुम्हें अभी कर्मका फल भोगना है। नौवें जन्ममें तुम मोक्ष-प्राप्त करोगे । ३. पण्डित परिमल्लका 'श्रीपाल चरित्र' ६ सन्धियोंका काव्य है। कथा चम्पापुरसे प्रारम्भ होती है। राजा अरिदमन, छोटा भाई वीरदमन, रानी कुन्दप्रभा, पुत्र श्रीपाल । अरिदमनकी मृत्युके बाद श्रीपाल राजा बनता है। परन्तु कोढ़ हो जानेसे प्रजाके हितमें चाचाको राजपाट देकर उद्यानमें चला जाता है। दूसरी सन्धिमें उज्जैनका राजा पहपाल, उसकी दो कन्याएँ हैं, सुरसुन्दरी और मयनासुन्दरी। दोनों दो अलग-अलग गुरुओंसे पढ़ती हैं। सुरसुन्दरीका विवाह कौशाम्बीके राजा हरिवाहनसे होता है। तीसरी सन्धिमें मयनासुन्दरीके कर्मसिद्धान्तवाले उत्तरको सुनकर राजा चिढ़कर कोढ़ी श्रीपालसे उसका विवाह कर देता है, बादमें पछताता है। सिद्धचक्र-विधान और सेवा करके मयनासुन्दरी सात सौ राजाओं सहित श्रीपालको ठीक कर लेती है। चौथी सन्धिमें उसकी माँ आती है। घरजॅवाईके कलंकको धोनेके लिए श्रीपाल प्रवासपर जाता है। वत्सनगरमें दो विद्याएँ प्राप्त करता है। पाँचवीं सन्धिमें भड़ौंचमें धवलसेठसे पहचान । खाड़ी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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