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सिरिवालचरिउ
१. यह कि आलोच्य ग्रन्थ, उस प्रतिमित और नियमित मध्यकालीन आर्यभाषामें रचित नहीं है कि जिसमें स्वयम्भू और पुष्पदन्तने अपने काव्यकी रचना की है, यह नव्य भारतीय आर्यभाषाके शब्दों-रूपों और अभिव्यक्तियोंसे मिश्रित है, इसका अपना महत्त्व है, क्योंकि यह संक्रमणकालका
प्रतिनिधित्व करता है। २. परन्तु दोनों माध्यमोंकी विशेषताओंको सुरक्षित रखनेके लिए जरूरी है कि लिखावट की चूकों
और भूलोंसे उन्हें अलग रखा जाये। ३. मैंने टेक्स्टका संशोधन कर दिया है और कहीं-कहीं अधिक संगत पाठ भी सुझाया है। ४. इस बातका निर्णय करना जरूरी है कि क्या कतिपय 'मध्यग व्यंजनों को उसी रूपमें रखनेकी
अनुमति दी जाये कि जिस रूपमें वे प्रयुक्त है। परन्तु काव्य भारतीय आर्यभाषाकी प्रवृत्ति उन्हें
सुरक्षित रखनेकी है ? 'ब' और 'व' का निर्णय संस्कृत परम्पराके अनुसार किया जाये। ५. अपभ्रंशचरितकाव्यके सम्पादनके लिए जो आदर्श स्थापित हैं उन्हें सुरक्षित रखा जाये । मैं इन्हें
इसलिए महत्त्व देता हूँ क्योंकि भाषाविज्ञानके दृष्टिसे वे मूल्यवान् हैं और सम्पादित ग्रन्थको
विद्वानोंके बीच सम्माननीय बनाते हैं।
जैन साहबके उक्त निर्देशोंसे मेरा मानसिक बोझ कुछ कम हआ। उनके अधिकतर संशोधन विभक्तियों से सम्बन्धित है। आलोच्य कविने प्रायः निविभक्तिक पदोंका प्रयोग किया है, यह बाल तीन पाण्डुलिपियोंमें समान रूपसे दिखाई देती है, डॉ. जैनने ऐसे पदोंमें विभक्ति जोड़ दी है (बशर्ते ऐसा करते समय छन्दोभंग न हो) मैंने इसे मान्यता दी है 'सिरिपाल'की जगह 'सिरिवाल' रखनेमें मैंने उनके निर्देशका पालन किया है, परन्तु बहुतसे ऐसे स्थल है कि जहाँ नयी भाषाओंके ठेठ प्रयोग और विभक्ति चिह्न हैं, उन्हें डॉ. जैनने ज्योंका त्यों रहने दिया है। मैंने भी ऐसे प्रयोगोंसे छेड़छाड़ नहीं की। जहाँ तक मध्यम व्यंजनोंका प्रश्न है, हम इस भाषा वैज्ञानिक तथ्यको नहीं भूल सकते हैं कि स्वयम्भू और पुष्पदन्तमें भी इनके प्रयोगके अपवाद नहीं हैं, अन्तर केवल इतना है कि प्राचीन अपभ्रंश कवि अपनी अभिव्यक्ति सशक्त बनानेके लिए संस्कृतकी ओर बढ़ते जबकि १६वीं सदीके अपभ्रंश कवि आधुनिक आर्यभाषाओंकी ओर। जब कवि अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करता है तो उसमें ऐसा मिश्रण (Confusion ) होगा। फिर भी डॉ. जैनके सुझावोंका, पाठोंके प्रस्तुतीकरणमें एकरूपता और प्रामाणिकताकी दृष्टिसे बहुत बड़ा महत्त्व है, इस महत्त्वको क्षति न पहुँचाते हुए, अधिक सन्दिग्ध और अस्पष्ट पाठोंको पुनर्रचना करने में भी, मुझे इससे बड़ी सहायता मिली है। इस प्रयोगमें जो कुछ सीखनेको मिला है, वह भविष्यमें काम आयेगा। डॉ. जैन साहबके अतिरिक्त डॉ. ए. एन उपाध्येने भी जो सुझाव दिये हैं उनको पूरा कर दिया गया है। इसके बाद भी जो स्थल समझे नहीं जा सके, उन्हें मूलरूपमें रख दिया गया है प्रश्नवाचक चिह्नके साथ, जिससे भविष्यमें उनपर विचार की सम्भावना बनी रहे। 'सिरिवाल चरिउ'की एक विशेषता यह है कि उसकी रचना हिन्दी प्रदेशमें हुई है और उसकी पाण्डुलिपियाँ भी इसी प्रदेशमें लिखी गयी हैं। इससे यह अनमान कि 'अपभ्रंशचरितकाव्य' हिन्दी प्रदेशके किनारोंपर लिखा गया, निरस्त हो जाता है।
भारतीय ज्ञानपीठके उक्त मान्य विद्वान् सम्पादकों (डॉ. हीरालाल जैन और डॉ. ए. एन. उपाध्ये) के प्रति पूर्ण कृतज्ञता व्यक्त करनेके बाद, डॉ. कस्तुरचन्द्र कासलीवाल जयपरके प्रति अपना आभार व्यक्त करना मेरा पुनीत कर्तव्य है, उन्होंने 'सिरिवाल चरिउ'की ३ पाण्डुलिपियाँ भेजनेकी उदारता दिखायी । आचार्य पण्डित बाबूलालजी शास्त्री इन्दौर, डॉ. राजाराम जैन, मगधविश्वविद्यालय, श्री मदनलाल जैन एम. ए. इन्दौरका भी मैं आभारी हूँ कि इन्होंने सन्दर्भ ग्रन्थोंको उपलब्ध कराने में सहायता की। 'प्रेस कापी' तैयार करनेका श्रेय मेरे छात्र श्री दीनानाथ शर्मा एम. ए. इन्दौरको है वह मेरे साधुवादके पात्र हैं। ३ अप्रैल '७१ ११४ उषा नगर
-देवेन्द्रकुमार जैन इन्दौर-२
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