Book Title: Samyag Darshan Part 01
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 सम्यग्दर्शन को नमस्कार करते हुए श्रीमद् राजचन्द्रजी फरमाते हैं कि 'अनन्त काल से जो ज्ञान, भव का कारण होता था, उस ज्ञान को एक क्षण में जात्यन्तर करके जिसने भवनिवृत्तिरूप परिणत कर दिया, उस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन को नमस्कार हो।' द्रव्यदृष्टि रहितज्ञान, मिथ्याज्ञान है और संसार का कारण है। द्रव्यदृष्टि प्राप्त करते ही वह ज्ञान, सम्यक्पना प्राप्त करता है; इसलिए ज्ञान भी दृष्टि के आधीन है। विपरीतदृष्टि की विपरीतता का महात्म्य :
जिन जीवों को उपर्युक्त द्रव्यदृष्टि नहीं होती, उन्हें विपरीत दृष्टि होती है। (विपरीतदृष्टि के अन्य अनेक नाम हैं - जैसे कि मिथ्यादृष्टि, व्यवहारदृष्टि, अयथार्थदृष्टि, झूठीदृष्टि पर्यायदृष्टि, विकारदृष्टि, अभूतार्थदृष्टि, ये सब एकार्थ-वाचक शब्द हैं।) यह विपरीतदृष्टि एक समय में अखण्ड परिपूर्ण स्वभाव को नहीं मानती है अर्थात् इस दृष्टि में अखण्ड परिपूर्ण वस्तु को न मानने की अनन्त विपरीत सामर्थ्य भरी हुई है। पूर्ण स्वभाव का निरादर करनेवाली, दृष्टि, अनन्त-अनन्त संसार का कारण है और वह दृष्टि एक समय में महान पाप का कारण है। हिंसा, चोरी, झूठ, शिकार आदि सात व्यसनों के पापों से भी बढ़कर अनन्त गुना महापाप यह दृष्टि है। 7. द्रव्यदृष्टि ही परम कर्तव्य है :
अनादि काल से चले आये इन महान दुःखों का नाश करने
*नोट- द्रव्यदृष्टि कहो या आत्मस्वरूप की पहिचान कहोएक ही बात है। इसी तरह सम्यग्दृष्टि, परमार्थदृष्टि, वस्तुदृष्टि, स्वभावदृष्टि, यथार्थदृष्टि, भूतार्थदृष्टि –ये सब एकार्थवाचक है।
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