Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh

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Page 194
________________ मच्चुभयगहियदिक्खो, विचित्तपरिवत्तमाणसुत्तऽत्थो। जाओ जिणिदधम्मम्मि, सो थिरो विणयनिरओ य ॥६५९२ ॥ नवरं नो जाइमयं, मुयइ मुणंतो वि तस्स फलमऽसुहं । तमऽणाऽऽलोइत्तु मओ, जाओ देवो य सोहम्मे ॥ ६५९३॥ आउक्खयम्मि तत्तो, चविऊणं नंदीवद्धणपुरम्मि। जाईमयदोसेणं, मायंगसुओ समुप्पण्णो ॥६५९४॥ ईसिचिरसुकयवसओ, रूवी सोहग्गवं च संवुत्तो। जणमणनयणाऽऽणंदं, कमेण पत्तो य तरुण ॥६५९५॥ ट्ठण य विलसंते, नायरए सो विचिंतए एवं। सिट्ठजणनिंदणिज्जं, धिद्धी! हु जीवियं मज्झ ॥६५९६॥ तारुण्णसिरी जस्सेरिसी वि, मायंगसंगगयसोहा । रणनलिणि व्व निव्वुइ-मुवजणयइ नो विसिट्ठाणं ॥६५९७॥ हयविहि ! विहिओ जम्मो, कुलम्मि जइ निंदियम्मि मह तुमए । रूवाऽऽइणो गुणा किं, विहल च्चिय ता समुवणीया ६५९८ अहवा किमऽणेणाऽणत्थएण परिदेविएण वच्चामि । देसम्मि तम्मि जम्मि, जाइं नो मुणइ मज्झ जणो ॥ ६५९९ ॥ एवं परिभावित्ता, अकहित्ता निययसयणमित्ताण । केणाऽवि अणज्जंतो अवकंतो सो सनयरीओ ॥६६००॥ पत्तो य दूरतरदेस-संठिए कुंडिणम्मि नयरम्मि। ओलग्गिउं पवत्तो, तहिं च रण्णो दियाऽमच्चं ॥६६०१॥ जाओ य नियगुणेहिं, पसायठाणं परं अमच्चस्स । निस्संकं विसयसुहं, भुंजइ पंचप्पयारं पि ॥६६०२॥ एगम्मि य पत्थावे, सावत्थीउ वयंसया तस्स। अच्चंतगीयकुसला, भममाणा तत्थ संपत्ता ॥६६०३ ॥ गायंतेहिं तेहि य, अमच्चपुरओ पलोइओ एसो। तो हरिसुक्करिसवसा, अविभावियभाविदोसेहि ॥६६०४॥ भणिओ वयंस! इहइं, उवेहि चिरदसणोचियं जेण । आलिंगणाऽऽइ कुणिमो, पियाऽऽइवत्तं च साहेमो ॥६६०५॥ अह सो ते दृट्टणं, वयणं पच्छाइउं अवक्कंतो। तो विम्हिएण पुट्ठा, ते वुत्तंतं अमच्चेणं ।। ६६०६॥ मुद्धत्तणेण सिट्ठो, जहट्ठिओ तेहि तो अमच्चेण । कुविएणं आणत्तो, वज्झो सूलापओगेण ॥६६०७॥ तो रासहम्मि आरोविऊण, पुरिसेहिं नयरिमज्झम्मि। सनिकारं हिंडाविय, नीओ सूलापएसम्मि ॥६६०८॥ एत्थंतरम्मि अंजण-सिद्धेण अदिस्समाणरूवेण । जोगेसरनामेणं, उप्पण्णाऽपुव्वकरुणेण ॥६६०९ ॥ कह वच्चिही वराओ, अपत्तकाले वि एस पंचत्तं। थोयवओ इण्हेिं चिय, एवं परिभावयंतेणं ॥६६१०॥ अंजणसलाइयाए, झडत्ति से अंजियाइं नयणाइं । भणिओ य वच्च एत्तो, अबीहमाणो जमाओ वि ॥६६११॥ तो सो तओ पलाणो, अंजणसिद्धं नमित्तु विणएण । मरिऊण य उववण्णो, कइ वि भवे हीणजाणीसु ॥६६१२॥ तो पाविय माणुस्सं, केवलिकहणाउ मुणियपुव्वभवो। घेत्तूणं पव्वज्जं, महिंदकप्पे सुरो जाओ ॥६६१३॥ इय जाइमयसमुब्भव-दोसं दुटुं अणिट्ठफलजणगं । मा काहिसि जाइमयं, तुमं मणागं पि हे खमग ! ॥६६१४॥ एवं पढमं वुत्तं, मयठाणं संपर्य च वोच्छामि । कुलविसयं बीयमऽहं, मयठाणं किंचि लेसेणं ।। ६६१५॥ एमेव कुलमयं पि हु, कुणमाणा माणवा गुणविहीणा । परमत्थमऽजाणंता, अप्पाणं चिय विडंबंति ॥ ६६१६॥ जओगुणसंकुलं कुलं किं, काहीह दुरउप्पणो सयमऽगुणिणो.कि किमिणो कुसुमेसं. गंधड्डेसं न जायंति ॥ ६६१७॥ हीणकुलुप्पण्णा वि हु, गुणवंतो सव्वहा जणऽग्घविया । पंकुब्भवं पि पउमं, सिरोवरिं वुब्भइ जणेण ॥६६१८॥ सीलबलरूवमइसुय-विहवप्पमुहऽण्णपुण्णगुणसुण्णो। जइ जायइ सुकुलीणो वि, ता अलं कुलमएणाऽवि ॥६६१९ ।। होउ कुलं सुविसालं, साऽलंकारो वि कीरउ कुसीलो। चोराऽऽइदुट्ठसंभावणस्स-किं कुलमओ कुणउ ॥६६२०॥ हीणकुलस्स वि सुकुलु-ग्गया वि जइ इह मुहं पलोयंति । ता सेउ मरणं चिय, न कुलमओ ताण अण्णं च ॥६६२१ ॥ जइ नऽत्थि गुणा ता किं, कुलेण गुणिणो कुलेण न हु कजं । कुलमऽकलंकं गुणव-ज्जियाण गस्यं चिय कलंक।। ६६२२ ।। जइ ता न कुणंतो च्चिय, मिरिई कुलगोयरं मयं तइया । ता नाऽणुभवंतो च्चिय, चरमभवे कुलपरावत्तं ॥ ६६२३ ॥ तहाहिनाहिसुयरज्जकज्जुज्जमंत-नरविणयतुट्ठहियएणं । सक्केण विनिम्मविया, आसि विणीया पुरी पवरा ॥ ६६२४॥ तिहुयणपहुउसभजिणिंद-चलणतामरसफरिसपूयाए। अमरावई वि जीए, न पुरो परभागमुवलभइ ॥६६२५ ॥ सुंदेरमुदारं जीए, अणिमिसऽच्छीहिं पेच्छमाणेहिं । तियसेहिं अणिमिसत्तं, तयाऽऽइ पत्तं अहं मण्णे ॥६६२६॥ तं पालित्था पत्थिव-मत्थयमणिकिरणविच्छुरियचरणो। लल्लक्कचक्कनिक्क-त्तियाऽरिचक्को भरहराया ॥६६२७॥ ૧૮૦

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