Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh

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Page 211
________________ अण्णं च विसयवासंग-वज्जिएणाऽवि निययबुद्धीए। पुरिसेण धरतेणं, तहाविहं निम्मलविवेयं ॥ ७२१५॥ सब्भावो वीसंभो, नेहो रइवइयरो य जुवइजणे । कीरंतो अचिरेणं, तवसीलवयाई फेडेज्जा ॥ ७२१६॥ जह जह कीरइ संगो, तह तह पसरो खणे खणे होइ । थेवो वि होइ बहुओ, न य लहइ धिई निरुंभंतो ॥ ७२१७॥ एवं च सो अणज्जो, ववगयलज्जो समीहियअकज्जो । तं चेव कुणइ सज्जो, मुक्कंऽगीकयसुकयकज्जो ॥७२१८॥ भीओ भीयाए समं, समंतओ विहियनियरइकिरिओ। अहह ! तहाऽवि स विसई, जइ होज्ज सुही दुही को णु ?॥७२१९ ॥ किंचदुलहं चरित्तरयणं, खंडिउमेक्कसि कहिंचि विसयवसो। पावइ दुगंछियत्तं, जावज्जीवं पि सयलजणे ॥७२२०॥ आवायमेत्तसुहया वि, किं पि बहुभाविभवनिमित्तत्ता। विसया सप्पुरिसाणं, सेविज्जंता वि दुहजणया ॥ ७२२१ ॥ हा ! धी ! विलीणबीभच्छ-कुच्छणिज्जम्मि रमइ अंगम्मि। किमियो व्व एस जीवो, दुहं पि सोक्खं ति मण्णंतो ।। ७२२२ ॥ ता ताण कए दुहसय-निबंधणं भयइ बहुविहं जीवो। आरंभमहपरिग्गह-मओ उ बंधं पि पावाणं ॥७२२३ ॥ ता नरयवेयणाओ, तिरियगतीओ य पाउणइ बहुसो । इय जरियजंतुणो मज्जि-याऽऽइपाणोवमा विसया ॥७२२४ ॥ जइ होज्ज गुणो विसयाण, कोई ता न हु जिणिदचक्किबला । दूरुज्झियविसयसुहा, धम्माऽऽरामे तह रमंता ता भो देवाणुपिया!, पयओ परिभाविऊण तुममेवं । चयसु मियं विसयसुहं, अपरिमियं भयसु पसमसुहं ॥ ७२२६॥ जेणमऽकिलेससाहण-मऽलज्जणीयं विवागसुंदरयं । पसमसुहमिमाहितो-ऽणंताणंतेहिं संगुणियं ॥ ७२२७॥ ता सुकयत्था एत्थेव, गाढपडिबद्धमाणसा धीरा । धण्णा ते च्चिय परमत्थ-साहगा साहुणो निच्चं ॥ ७२२८॥ अणवरय-मरण-रणरणय-भीसणं पेच्छिऊण संसारं । चत्तं विसं व विसमं, विसयसुहं जेहिं रेण ॥ ७२२९॥ विसयाऽऽसासंदाणिय-चित्ता य अपत्तविसयसोक्खा वि। हिंडंति कंडरीउ व्व, नियमओ घोरसंसारे ॥ ७२३०॥ तहाहिपुंडरीगिणीपुरीए, पयंडभुयदंडखंडियविपक्खो। आसी पुंडरीयनिवो, जिणिदधम्मेक्कपडिबद्धो ॥ ७२३१ ॥ सो य महप्पा तडिदंड-भंगुरं जाणिऊण रज्जसिरिं। खरपवणाऽऽहयदीवय-सिहं व जीयं पि परिलोलं ॥ ७२३२ ॥ किपागफलं व विराम-दिण्णदुक्खं च विसयसोक्खं पि। लक्खित्ता सविसेसं, सुगुरुसमीवाउ पडिबुद्धो ॥७२३३॥ पव्वज्जं काउमणो, कणि?नियभायरं दढप्पणयं । कंडरीयनामधेयं, वाहरिउं भणिउमाऽऽढत्तो ॥ ७२३४ ॥ हे भाय ! रज्जलच्छिं, उव जसु संपयं तुम एत्थ । भववासाउ विरत्तो, अहमिण्हेिं पव्वइस्सामि ॥ ७२३५ ॥ कंडरीएणं भणियं, दुग्गइमूलं ति जइ तुमं रज्जं । मोत्तूणं पव्वज्जं, वंछसि घेत्तुं महाभाग ! ॥ ७२३६॥ ता कि मज्झ वि रज्जेण, सव्वहा हं गुरुस्स पामूले । इण्हिं चिय निस्संगो, जिणिददिक्खं गहिस्सामि ॥ ७२३७॥ अह नरवइणा सुबहु-प्पयारहेऊहिं वारियो वि दढं। अच्चंततरलयाए, सूरिसमीवे स निक्खंतो ॥ ७२३८॥ गुरुकुलवासोवगओ य, विहरमाणो पुराऽऽगराऽऽईसु । अणुचियआहारवसा, संजायसरीरगेलण्णो ॥ ७२३९ ॥ चिरकालाओ पुंडरि-गिणीए नयरीए आगओ संतो। उवयरिओ वेज्जोसह-विहीए पुंडरियनरवइणा ॥ ७२४०॥ जाओ पगुणसरीरो, रसगिद्धीए तहाऽवि अण्णत्थ । विहरिउमऽणुच्छहतो, रण्णा उच्छाहिओ एवं ॥७२४१॥ धण्णो तुमं महायस!, निस्संगो जो न दव्वमाऽऽईसु। थेवं पि हु पडिबंधं, करेसि तवसुसियदेहो वि ॥७२४२॥ तुममेव अम्ह कुलनह-यलम्मि संपुण्णपुण्णिमाचंदो। सच्चरियपहापसरेण, जस्स धवलिज्जए भुवणं ॥७२४३॥ अप्पडिबद्धविहारो, तुमए च्चियऽणुट्ठिओ महाभाग ! । जो मज्झऽणुवित्तीए वि, ठासि नो एत्थ ठाणम्मि ॥ ७२४४॥ इय उच्छाहगवयणेहिं, राइणा तह कह पि पण्णविओ। जह सीयविहारी वि हु, कंडरिओ विहरिओ बहिया ॥ ७२४५॥ संजमपडिभग्गमणो, भूसयणाऽसारभोयणाऽऽईहिं । सीलमहाभरपडिवहण-भंगुरो चत्तमज्जाओ ।। ७२४६॥ विसयाऽभिसंगगरुओ, गुरुकुलवासाउ सो विनिक्खमिउं। रज्जोवभुंजणट्ठा, समागओ पुण सनयरीए ॥ ७२४७॥ तत्तो निवउज्जाणे, तरुसालोलइयधम्मउवगरणो। हरियाऽऽउलधरणियलम्मि, संनिसण्णो य निल्लज्जो ।। ७२४८॥ तं च तहट्ठियमाऽऽयण्णिऊण, राया समागओ नमिउं। संजमथिरकरणट्ठा, एवं भणिउं समारद्धो ॥७२४९॥ तुममेक्को च्चिय धण्णो, कयपुण्णो लद्धजीवियफलो य । पालेसि निरइयारं, जो पव्वज्जं जिणुद्दिटुं ॥ ७२५०॥ ૨૦૪

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