Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh
View full book text
________________
एवं भणिउं तम्मि, गयम्मि वसभा जहिच्छमऽडमाणा। अडवि अणुप्पविट्ठा, उस्सग्गठियस्स जयगुरुणो ॥ ८६६७॥ खणमेत्तेणं च समागओ य, वसहे अपेच्छमाणो सो। ते कत्थ गय त्ति जिणं, पुच्छइ संजायसंतावो
॥ ८६६८॥ पडिवयणमऽलभमाणो, सव्वत्तो पेहिउं समारुद्धो। ते वि य वसभा सुचिरं, चरिउं जिणपासमऽल्लीणा ।। ८६६९ ।। इयरो वि सयलरयणि, परियरिउं तं पएसमऽणुपत्तो। पेहेइ निययवसभे, रोमंथंते जिणसमीवे
॥ ८६७० ॥ नूणं नूमिय देवऽज्जएण, हरणट्ठया इमे धरिया। कहमऽण्णहा न कहिया, मए बहुं पुच्छिएणाऽवि
॥ ८६७१॥ इय कुवियप्पवसुप्पण्ण-तिव्वकोवो जवेण सो गोवो। आकोसिंतो निठुर-मुवट्ठिओ जयगुरुं हणिउं
॥८६७२॥ एत्थंतरम्मि ओहीए, सुरवई पेच्छिऊण जयपहुणो । तारिसमऽवत्थमुप्पित्थ-माणसो झत्ति ओइण्णो
॥८६७३॥ निब्मच्छिऊण गोवं, तिपयाहिणपुव्वगं जिणं नमिउं। भालयलविरइयंजली, भत्तीए भणिउमाऽऽढत्तो ॥८६७४ ॥ संवच्छराई बारस, एत्तो होहिंति तुम्ह उवसग्गा । ता देह ममाऽऽएसं, जेणुज्झियसेसकायव्वो
॥८६७५॥ नरतिरियतियसविहिए, उवसग्गे पडिखलेमि पासठिओ। जयपहुणा संलत्तं, सुरिंद! तं कुणसि सव्वमिमं ॥ ८६७६॥ नवरं इमं न होही, नो हूयं भवइ नेव कइया वि। जं पुव्वविहियदुव्विलसि-उत्थकम्माण निज्जरणं
॥ ८६७७॥ साणिज्झेणं कस्स वि, भवेज्ज मोत्तुं सयं समणुभवणं । दुक्करतवचरणं वा, जीवाण भवे भमंताणं
॥ ८६७८॥ एक्को च्चिय सुहदुक्खे, जीवो अणुभवइ कम्मपरतंतो। उवयारश्वयारकरा, तदऽवेक्खच्चिय एरे होंति ॥ ८६७९ ॥ एवं जिणेण भणिए, सक्को नमिउं गओ जहाऽभिमयं । दुस्सहपरीसहे सहइ, एगगो भुवणनाहो वि
॥८६८०॥ इय जइ चरमजिणो वि हु, एक्को च्चिय सहइ दुक्खसोक्खाई । ता कह न खवग! एगत्त-भावणाभावगो होसि ॥ ८६८१ ।। जेणं चिय संतेसु वि, सयणाऽऽइविचित्तबज्झवत्थूसु । एगत्तमंऽगिणो तेण, ताणमऽण्णोण्णमऽण्णत्तं
॥८६८२ ॥ भुंजंताण सयंकड-कम्मफलं भिण्णभिण्णमंऽगीणं । को कस्स एत्थ सयणो, भवेज्ज को वा परजणो वि ॥८६८३॥ अण्णो देहाउ जिओ, अण्णो य इमाउ सयलविभवाउ। अण्णो च्चिय पियपिइपुत्त-मित्तसयणाऽऽइवग्गाओ। ॥८६८४॥ एए वि जियादऽण्णे, सच्चित्ताऽचित्तवित्थरा सव्वे । ता काउ खमं से अप्प-णो हियं अप्पणो चेव
॥ ८६८५ ॥ एत्तो च्चिय नरयसमुत्थ-तिक्खदुक्खोवहम्ममाणंऽगो। अणुसासिओ सिवेणं, जेट्ठो भाया सुलसनामो ॥ ८६८६॥ तथाहिनगरम्मि दसण्णपुरे, सुलसो य सिवो य भायरो दोण्णि। निवसंति परोप्परपउर-पणयपडिबद्धदढचित्ता ॥ ८६८७॥ नवरं पढमो अइनिबिड-कम्मगंठित्तणेण जिणधम्मं । सद्दहइ न भण्णंतं पि, हेउदिटुंतजुत्तीहिं
॥ ८६८८॥ बीओ पुण अइलहुकम्मयाए, पडिवण्णतित्थयरधम्मो । जइपज्जुवासणाऽऽइसु, पयट्टइ सिट्ठचेट्ठासु
॥ ८६८९॥ अच्चंतपावपडिबद्ध-माणसं जेट्ठभाउगं च सया। अणुसासइ कीस करेसि, भाय! असमंजसाइं तुम ॥ ८६९०॥ कि नो पेच्छसि आउं, सछिडुकरकमलकलियसलिलं व। गलमाणमऽणुक्खणमंग-चंगिम पि हु पणस्संति ॥८६९१॥ किंवा न पेच्छसि सिरिं, हायंतिं सरयमेहसोहं व। विहडतं पियजणसंगम पि सरियातरंगं व
॥ ८६९२॥ किंवा न पेक्खसि सयं, पइदिणमरमाणमाणवसमूहं। विविहाऽऽवयाऽवगाढं, महासमुदं व जियलोयं ॥ ८६९३॥ जेणेयं नरयनिवास-कारणं घोरपावमाऽऽयरसि । उज्जमसि न थेवं पि हु, तवदाणदयाऽऽइधम्मम्मि
॥ ८६९४ ॥ सुलसेण जंपियं मुद्ध!, धुत्तलोगेण विनडिओ तं सि। सोसेसि जो नियतणुं, तवसा दुहहेउभूएण
॥ ८६९५ ॥ वियरसि य किलेसज्जिय-मऽत्थं तित्थाऽऽइएसु णिच्चं पि। जीवदयारसियमणो, ठवसि न चरणं पि धरणीए ॥८६९६ ॥ एवंविहस्स य तुहं, सिक्खादाणेण नऽत्थि मे कज्जं । को पीडइ अप्पाणं, पच्चक्खसुहं विमोत्तूणं
॥ ८६९७ ॥ इय सपरिहासभाउग-वयणाई णिसामिउं सिवो विलिओ। इममेव य वेरग्गं, समुव्वहंतो सुगुरुमूले
॥ ८६९८॥ पव्वइउं उग्गतवं च, सुचिरकालं चरित्तु कालगतो । उववण्णो कयपुण्णो, देवत्तेणऽच्चुए कप्पे
॥ ८६९९ ॥ सुलसो वि वीहियपाव-प्पबन्धमऽच्चन्तमऽज्जिऊण मओ। उववण्णो नेरइओ, तइयाए नरयपुढवीए
॥ ८७००॥ अणवरयदहणताडण-बंधणपामोक्खभरिदक्खाई। विसहइ तहिं च कलणं, विलवंतो गुत्तिखित्तो व्व
॥८७०१॥
૨૪૫

Page Navigation
1 ... 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378