Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh

View full book text
Previous | Next

Page 268
________________ तथाहि किर पुव्वमाऽऽसि जिणउसभजीवु वेज्जस्स पुत्तु नियकुलपईवु। निवमंतिसेट्ठिसत्थाहपुत्त, संजाय तस्स चत्तारि मित्त।। ९२२४ ॥ सो नियवि साह किमिकोढखीण, सहधम्मझाणि निच्चल निलीणु । जायाऽणुकंपु तसु कयतिगिच्छु, अज्जिणिवि पुण्णसंचउ अतुच्छ ॥ ९२२५ ॥ आउक्खयम्मि कयपाणचाउ, सव्वण्णुधम्मरसभिण्णधाउ। चउहि पि वयस्सिहि सुहं सुरत्तु, अच्चुत्तमु अच्चुयकप्पि पत्तु ॥ ९९२६ ॥ अह जंबुदीवतिलओवमाए, वेसमणनयरिसमविब्भमाए। सिरिपुव्वविदेहसिरोमणीए, नामि पुरीए पुंडरीगिणीए ॥ ९२२७ ॥ सुररायपणयपयपंकयस्स, सिरिवइरसेणभूमिवइस्स। देवीए विमलगुणधारणीए, जयविस्सुयाए किर धारिणीए ॥९२२८ ॥ ते सग्गह पंच वि चविवि पुत्त, उप्पण्ण अणोवमरूवजुत्त । अप्पडिमपरमगुणलच्छिसार, वुड्डिं च पत्त ते वरकुमारा। ९२२९ ।। तह पढमु चक्किसिरिवइरनाहु, पुरपरिहदीहथिरथोरबाहु । तो बाहुसुबाहु तउ वि पीढु, पंचमु महपीढु गुणाऽवलीढु ॥ ९२३०॥ अह पुव्वबद्धतित्थयरनामु, सिरिवइरसेणु सुरकयपणामु । आरोविवि नियपइ वइरनाहु, वरचक्कवट्टिलच्छीसणाहु ॥ ९२३१ ॥ बहुनिवसयसहिउ सुसमणु जाउ, परिचइवि रज्जु निडुणियपावु । थुव्वंतु देवदाणवगणेहिं, आणंदजलाऽऽउललोयणेहिं ॥ ९२३२॥ अह जियमोहमहाबलु पाविय केवलु, बोहितउ सो भव्वजणु । महिमंडलमंडणु तमभरखंडणु, विहरिउ तह जह खरकिरणु ॥९२३३॥ विहरेविणु पुरगामाऽऽगरेसु, कब्बडमडंबआसमधरेसु । पुंडरीगिणीए नयरीए पत्तु, ओसरणु रइउ तियसिहि विचित्तु ॥ ९२३४ ॥ उवविठु तेत्थु वो तित्थनाहु, अह आगउ तक्खणि वइरनाहु। नियभाउजुत्तु जिणवरु थुणंतु, आसीणु महीयलि भत्तिमंतु ॥९२३५॥ पारद्ध जिणिंदिण धम्मकहा, संसारमहाभयहणणसहा । तं निसुणिऊण सिरिवइरनाहु, सहुं चउहि वि भाउहि जाउ साहु ९२३६ अहिगयसमत्थसुत्तऽत्थसत्थु, दावेंतउ भव्वहं मोक्खपंथु । सज्झायझाणपडिबद्धचित्तु, वोलइ दिणाई समसत्तुमित्तु ।। ९२३७ ॥ ति वि बाहुसुबाहु तवस्सि दो वि, एक्कारसंग सम्म पढेवि । असणाऽऽइदाणविस्सामणाउ, कुव्वंति तवस्सिहिं सुहमणाउ ॥ ९२३८॥ इयरे वि दो वि सज्झायझाणि, वटुंति उक्कुडुयाऽऽइठाणि । पढमउ पुण वीसं ठाणगाई, फासइ जिणत्तनिव्वत्तगाइं ॥९२३९ ।। अह बाहुसुबाहुहुं विणयवित्ति, अणवरउ पसंसइ जा(उ) भत्ति । मुणिवइरनाहु किर जिणमयम्मि, उववूहजुत्तवृत्ति य गुणम्मि ॥ ९२४०॥ तं निसणिऊण महपीढपीढ, चितेंति किपि माणोवगढ। सलहिज्जहिं ते जे विणयवंत, नो अम्हे नियसज्झायजुत्त ॥९२४१ ॥ एवंविहु य कुवियप्यु तेहिं, नवि सुलु सिठ्ठ वियइंतएहिं। इत्थित्तजणगु तो बद्ध कम्मु, काऊण वि सुचिरु जिणिदधमु ॥९२४२॥ अह आउगविगमि सव्वट्ठसिद्धि, पंच विलहेवि तियसत्तरिद्धि। तो एत्थ भरहि नाभिस्स पुत्तु, हुउ वइरनाहु रिसहो त्ति वुत्तु ॥९२४३ ॥ ति वि बाहुसुबाहू चविवि पुत्त, रिसहस्स जाय रूवाऽऽइजुत्त । पढमउ चक्कीसरु भरहनामु, बीयओ पुण बाहुबली सुथामु ॥ ९२४४॥ इयरे पुण दोण्णि वि धूय जाय, तसु बंभीसुंदरीनामधेय । पुव्वज्जियमायासल्लदोसु, इय एरिसु असुहहं विहियपोसु ॥ ९२४५ ॥ एवं मायासल्लं, वज्जित्ता खवग ! सम्ममुज्जुत्तो। दुग्गइगमणनिमित्तं, चयाहि मिच्छत्तसल्लं पि ॥ ९२४६॥ मिच्छादसणसल्लं, मिच्छत्तं चेव सल्लमक्खायं । मिच्छत्तमोहकम्मस्स, उदयभावम्मि तं च तिहा ॥९२४७॥ उप्पज्जइ मइभेएण, संथवेणं कुतित्थियाऽऽणंदा। अहवाऽभिनिवेसेणं, जीवाणमऽपुण्णवन्ताणं ॥ ९२४८॥ ૨૧

Loading...

Page Navigation
1 ... 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378