Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh

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Page 267
________________ अंधारियं च नगरं, कसिणऽब्भसमाहिं धूमवत्तीहिं । ताहे चक्की लोगो य, तोसिउं तं पवत्तो त्ति ॥ ९१८९॥ जा न पसीयइ थेवं पि, ताव लोगाउ सुणिय वुत्तंतं । चित्तो समागओ झत्ति, महुरवाणीए तं भणइ ॥ ९१९०॥ भो भो महायस! कहं, जिणवयणं मुणिय कुणसि तं कोवं । न वियाणसि तप्पभवं, भवभमणमऽणंतभयभवणं ॥९१९१ ॥ को वा तस्सऽवराहो, अवयारकरस्स नणु वरायस्स। दुक्खे सुहे य कम्माणि, जेण पभवंति जंतूण ॥९१९२॥ एमाऽऽइपसमपीऊस-सारवाणीए पसमियकसायो। उवसंतो संभूतो, गया य ते दो वि उज्जाणं ॥ ९१९३॥ पडिवज्जिऊणमऽणसण-माऽऽसीणा दो वि एगदेसम्मि । तत्तो सणंकुमारो, चक्की अंतेउरेण समं ॥ ९१९४ ॥ आगंतं भत्तीए तेसिं चलणप्पले नमंसेइ । एवं थीरयणं पिह, नवरं तच्चिहरसहफासं ॥ ९१९५॥ अणुभवमाणो संभूय-मुणिवरो भणइ जइ इमस्स फलं । अस्थि तवस्स तया हं, भवंतरे होज्ज चक्कि त्ति ॥ ९१९६॥ एवं नियाणबंधो, तेण कओ चित्तसाहुणा बहुसो । वारिज्जतेण वि भव-विवागसंसूयगगिराहिं ॥ ९१९७ ॥ आउक्खएण मरिठं, सोहम्मे भासुरा सुरा जाया । तत्तो चविउं चित्तो, उववण्णो पुरिमतालम्मि ॥९१९८॥ इब्भस्स सुयत्तेणं, संभूओ पुण पुरम्मि कंपिल्ले। बंभस्स भूमिवइणो, चुलणीए सुओ समुप्पण्णो ॥ ९१९९ ॥ विहियं च बंभदत्तो त्ति, तत्थ नामं पसत्थदिवसम्मि। एत्थ य ता वत्तव्वं, जा सो चक्कित्तणं पत्तो ॥ ९२००॥ साहियसमग्गभरहो, भरहो इव भुंजए विसयसोक्खं । अह जायजाइसरणो, कहमऽवि एगत्थ पत्थावे ॥ ९२०१॥ पुव्वभवभाउजाणण-कएण दासाऽऽइपंचभवगब्भं । लोगाण दंसणत्थं, विरएइ इमं सिलोगद्धं ॥ ९२०२॥ "आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा।" इति एयं च रायवारे, ओलंबावेत्तु इय भणावेइ । जो एयपच्छिमद्धं, पूरइ से देमि रज्जद्धं ॥ ९२०३ ॥ अह सो पुव्वुवइट्ठो, जीवो चित्तस्स मोत्तु गिहवासं । संजायजाइसरणो सम्मं घेत्तूण पव्वज्जं ॥ ९२०४॥ अप्पडिबद्धविहार, विहरतो आगओ तहिं नयरे। एगत्थुज्जाणम्मि, ठिओ य सद्धम्मझाणेणं ॥ ९२०५॥ एत्थंतरम्मि अरहट्टिएण, पढियं तयं सिलोगद्धं । उवउत्तेणं मुणिणा वि पच्छिमद्धं भणियमेवं ।। ९२०६॥ एषा नौ षष्ठिका जाति- रन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः" इति ॥९२०७॥ अह आरहट्टिएणं, एयं गंतुं णिवेइयं रण्णो । राया वितं णिसामिय, भाइसिणेहाऽइरेगेण ॥९२०८॥ मुच्छावसेण वियलत्त-मुवगओ तो अणिट्ठकारि त्ति । ताडिउमाऽऽरद्धो आर-हट्टिओ रायपुरिसेहि ।। ९२०९ ॥ हम्मतेण य तेणं, भणियं मा हणह कयमिणं मुणिणा। खणलद्धचेयणो निसुणिऊण एयं च नरनाहो ॥ ९२१०॥ सव्वाइ विभूईए, गतो समीवम्मि तस्स साहुस्स । चलणे य वंदिऊणं, आसीणो दढसिणेहेण ॥ ९२११ ॥ विहिया मुणिणा सद्धम्म-देसणा तं च अवगणेतेण । साहू भणिओ चक्काऽ-हिवेण भयवं कुण पसायं ॥ ९२१२॥ अंगीकरेसु रज्जं, भुंजसु भोए चयाहि पव्वज्ज । पुव्वं पिव समगं चिय, कालं अइवाहयामो त्ति ॥९२१३॥ मुणिणा भणियं नरवर!, रज्जं भोगा य दुग्गइमम्गो । ता मुणियजिणमयऽत्थो, एए तुममुज्झिउण लहुं ॥९२१४ ॥ पडिवज्जसु पव्वज्जं, जेण समं चिय तवं अणुचरामो। किं तुच्छकालिएणं, रज्जाऽऽइसमुत्थसोक्खेण ॥ ९२१५॥ भणियं रण्णा भयवं!, दिटुं मोत्तूण किं अदिट्ठकए । तम्मसि मुहाए जेणं, वयणं मे इय विकूलेसि ॥ ९२१६॥ अह साहू नरवइणो, नियाणदुव्विलसियस्स सामत्था । मुणिऊण असज्झत्तं, उवसंतो धम्मकहणाओ ॥ ९२१७॥ कालक्कमेण विहुणिय-कम्ममलो सासयं पयं पत्तो। चक्की वि अंतसमए, रुद्दज्झाणम्मि वर्ल्डतो ॥९२१८॥ मरिऊण तमतमाए, उक्कोसठिई उ नारगो जाओ। एवंविहदोसकर, खवग! नियाणं विवज्जेसु ॥ ९२१९॥ भणियं नियाणसल्लं, मायासल्लं तु तं वियाणेहि। जंकाऊणऽइयारं, थोवं पि चरित्तविसयम्मि ।। ९२२०॥ गोरवलज्जाऽऽईहिं, नेवाऽऽलोएइ अंतिए गुरुणो। अहवा उवरोहेणं, आलोयइ नवरि नो सम्म ॥ ९२२१॥ एवंविहं च माया-सल्लमऽणुल्लूरिऊण तवनिरया। न सुहं पावंति फलं, चिरकालं पि हु किलिस्संता ॥ ९२२२॥ तेणं चिय तव्वसगा, सुचरियचिरकालदुक्करतवा वि। इत्थीभावं पत्ता, तवस्सिणो पीढमहपीढा ।। ९२२३ ॥ ૧૦.

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