Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh
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पढमं आणाविचयं, विपाकविचयं अवायविचयं च । संठाणविचयमेवं, धम्मज्झाणे झियाइ मुणी
॥ ९६३८॥ पउणमऽणवज्जमऽणुवम-मऽणाऽऽइनिहणं महत्थमऽवहत्थं । हियमऽजियमऽवितह-मऽविरोहमऽमोहमोहहरं ॥९६३९ ॥ गंभीरजुत्तिगरुयं, सुइसुहयमऽवहियं महाविसयं । निउणं जिणाणऽऽमाणं, चितेइ अचिंतमाहप्पं
॥ ९६४०॥ इंदियविसयकसायाऽऽसवाऽऽइ-किरियासु वट्टमाणाणं । नरयाऽऽइभवाऽऽवासे, विविहाऽवाए विचिंतेज्जा ॥९६४१॥ मिच्छत्ताऽऽइनिमित्तं, सुहाऽसुहं पयइठिइपएसाई। कम्मविवागं चिंतेइ, तिव्वमंदाऽणुभावं सो
॥ ९६४२॥ पंचऽस्थिकायमइयं, लोगमऽणाऽऽइनिहणं जिणऽक्खायं । तिविहमऽहोलोगाऽऽई, दीवसमुद्दाऽऽइ चिंतेइ ॥ ९६४३॥ होइ य झाणविरमे, निच्चमऽणिच्चाऽऽइभावणाऽणुगओ। ताओ य सुविहियाणं, पवयणविहिणा पसिद्धाओ ॥९६४४ ॥ एयं समइक्कतो, धम्मज्झाणं जया भवइ खवओ। तत्तो झायइ सुक्वं, चउभेयं सुद्धलेसागो
॥ ९६४५॥ बिंति पुहत्तवियकं, सवियारं जिणवरा पढमसुक्कं । बीयं सुक्कज्झाणं, एगत्तवियक्कमवियारं
॥ ९६४६॥ सुहुमकिरियानियट्टि, सुक्कज्झाणं भणंति तइयं तु । वोच्छिण्णकिरियमऽप्पडि-वाइक्कं खु चउत्थं पि ॥९६४७॥ पिहु वित्थरो त्ति भण्णइ, वित्थयभावो भवे पुहत्तं ति । वित्थरओ तक्कयई, चिंतयइ तो वियकं ति
॥ ९६४८॥ किह वित्थरओ भण्णइ, परमाणुजियाऽऽइएगदव्वमि । उप्पायट्ठिइभंगा, मुत्ताऽमुत्ताऽऽइपज्जाया
॥ ९६४९॥ तेसिं जं अणुसरणं, नयभेएहिं बहुप्पयारेहिं । होइ वियक्को त्ति सुयं, तो पुव्वसुयाऽणुसारेणं
॥ ९६५०॥ विचरणं होइ विचारो, गमणं अण्णोण्णपज्जवेसुं तु । संकमणं अत्थवंजण, को अत्थो वंजणं किंवा ॥ ९६५१॥ दव्वं तु होइ अत्थो, वंजणं होअक्खरं तु नामं च । जोगो य मणाऽऽईओ, अंतरभेएसु एएसु
॥९६५२॥ जं संचरणऽण्णोण्णे, सो नियमा भण्णए वियारो त्ति । सह तेण वियारेणं, तो सवियारं पढमसुक्कं
॥ ९६५३॥ अहुणेगत्तवियकं, एगत्तं नाम एगपज्जाये । उप्पायठिईभंगाऽऽइ-याणं जं होइ एगयरे
॥ ९६५४ ॥ होइ वियकं ति सुयं, पुव्वगयं तेण तं वियकं ति। न वि धरइ जमऽण्णण्णे, वंजणअत्थे व जोगे वा - ॥ ९६५५॥ तो भण्णइ अवियारं, निक्कंपं तं निवायदीवो व्व। बियसुक्कमेव भणियं, एगत्तवियक्कमऽवियारं
॥ ९६५६॥ सुहमम्मि कायजोगे, केवलिणो होइ सुहमकिरियं तु । अकीरियमऽप्पडिवाई, सेलेसीए चउत्थमिणं
॥ ९६५७॥ एयं कसायजुज्झम्मि, होइ खवगस्स आउहं झाणं । झाणविहुणो ण जिणइ, जुझं व निराऽऽउहो सुहडो ॥ ९६५८॥ इय झायंतो खवओ, जइया वोत्तुमऽसमत्थओ होइ । तइया निज्जवगाणं, साऽभिप्पायप्पयडणत्थं
॥९६५९॥ हुंकारंजलिभमुहंगुलीहिं, अच्छीविकूणणेणं वा । सिरचालणपमुहेहि य, लिंगेहि निदंसइ सण्णं
॥ ९६६०॥ तो पडियरगा खवगस्स, देंति आराहणाए उवयोगं । जाणंति सुयरहस्सा, कयसण्णा तस्स माणसियं
॥ ९६६१॥ इय समभावमुवगओ, तह झायंतो पसत्थयं झाणं । लेसाहिं विसुझंतो, गुणसेढिं सो समारुहइ
॥ ९६६२॥ इय धम्मसत्थमत्थयमणीए, संवेगरंगसालाए । चउमूलद्दाराए, सोग्गइगमपउणपयवीए
॥ ९६६३॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए समाहिलाभम्मि । भणियं चउत्थदारे, छटुं झाणं ति पडिदारं
॥ ९६६४॥ लेसाविसेसउ च्चिय, सुहअसुहगईओ झाणजोगे वि। जायंति जेण तम्हा, लेसादारं निदंसेमि
॥ ९६६५॥ किण्हाऽऽइकम्मदव्याण, विविहरूवाण सण्णिहाणेण । पयईए निम्मलस्स वि, फालिहमणिणो व्व जीवस्स जंबूफलभक्खगपुरिस-छक्कपरिणामभेयसंसिद्धो। हिंसाऽऽइभावभेओ, भण्णइ लेस त्ति परिणामो
॥ ९६६७॥ तथाहिएगम्मि वणनिगुंजे, परिब्भमंतेहिं छहिं उ पुरिसेहिं । गयणंऽगणऽग्गगविसण-कए व्व उड्ढं पवड्ढतो ॥ ९६६८॥ चक्कलविसालमूलो, सुपक्कफलभरनमंतसाहग्गो। पसरियबहुप्पसाहो, समंतओ गुच्छसंछइओ
॥ ९६६९॥ तह पइगुच्छं पेच्छिज्ज-माणपरिपिक्कसुरसफारफलो। पवणछडच्छोडणझडिय-पडियफलफुल्लतलभूमी ॥ ९६७०॥ एक्को जंबूरुक्खो भुक्खाए खामकुक्खिकुहरेहिं । दिट्ठो अदिट्ठपुव्वो, पच्चक्खं कप्परुक्खो व्व
॥ ९६७१ ॥ तो जंपिउं पयत्ता, परोप्परं ते जहा अहो! एसो। संपाविओ सपण्णेहि, पायवो कह वि अम्हेहि
॥ ९६७२॥
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