Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh
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अहतं तहाविहं पेच्छिऊण, ओहीए पुब्वपणएण। सो देवो तस्संऽतिय-मोयरिठं भणिउमाऽऽढत्तो कि पच्चभिजाणसि भद्द !, नेव तो सो ससंभमं भणइ । को मणहररूवधरं, देवं न तुमं वियाणाइ ताहे तियसेणं पुव्व-जम्मरूवं जहट्ठियं तस्स । उवदंसियं तओ सो, पच्चभिजाणित्तु तं सम्म ईसि सवियासचक्खू, भणइ कहं दिव्वदेवरिद्धीयं। उवलद्धा तुमए भाय!, कहसु तियसेण तो वुत्तं भद्द! मए दुक्करतव-विसेसज्झायझाणजोगेहिं । देहो कयस्थिओ तह, जह रिद्धिमिमं समणपत्तो तुमए पुण बहुविहलालणाहिं, पुद्धि तणुं नयंतेणं। धणसयणाऽऽइनिमित्तं, पावाणि सया कुणंतेणं सासिज्जतेण वि धम्पकम्म-विसए पमायवसगेण । तह कहवि वट्टियं जह, एवंविहवसणमाऽऽवडियं एयं पि नेव नायं, जीवाओ जहा इमं सरीरं पि । अण्णं धणसयणा वि हु, विहुरे ताणाय न हवंति एत्तो च्चिय भद्दय ! सीय-तावछुहवेयणाओ विसहति । देहे दुक्खं हि महा-फलं ति मुणिणो विचितिता सुलसेण जंपियं संपयं पि, तं मज्झ संतियं देहं। जइ एवं ता भाउय!, जाएहि जहा सुही होमि देवेण जंपियं भाय!, जीयरहिएण जाइएण गुणो। को? तेण संपयं ता, विसहसु पुव्वं कयं कम्म इय तमऽणुसासिऊणं, असक्कपडियारवसणमुवलब्भ। देवो गओ सुराऽऽलय-मियरो नरए चिरं वुत्थो एवं सरीरधणसयण-भिण्णमुवलक्खिऊण खवग! तुमं । जीवदयापडिबद्धो, धम्मे च्चिय उज्जओ होज्जा जेणं चिय देहाओ, अण्णत्तं तत्तओ य जीवस्स । तेणं चिय सो सिद्धाऽ-वत्थो च्चिय दव्वभावसुई इहरा तदऽणण्णत्ता, न सव्वहा दव्वभावसुइभावो। जीवस्स धुवं जायइ, देहस्स सया वि असुइत्ता तस्साऽसुइत्तणं पुण, पढमंत्रिय सुक्कसोणिउट्ठाणा । अणवस्यमऽमेज्झरसाऽऽ-सायणनिष्फत्तिओ य तहा जंबालपडलगाढाऽऽ-वेढणओ जोणिनिग्गमाओ य। पूइथणछीरपाणाओ, पबलदुग्गंधभावाओ रोगसयवाउलत्ता, निच्चं पि पुरीसमुत्तधरणाओ। नवछिड़गलंतुब्भड-बीभच्छमलत्तणाओ य असुइप्फुण्णघडस्स व, समत्थतित्थुत्थसुरहिसलिलेहि। आजम्मं धोयाण वि हु, थेवं पि अलद्धसुद्धिस्स जो पुण असुइसरूवे, एत्थं सुइवायवाउलो भमइ । सुइवोद्दमाहणो इव, सोऽणत्थपरंपरं लभइ तथाहिएगम्मि महानगरे, वेयपुराणाऽऽइसत्थकुसलमई। एगो विष्पो सुइवाय-हसियनीसेसपुरलोगो करधरियकुसऽक्खयमिस्स-वारिजुयतम्बभायणो भमइ । असुइयमिमं ति सव्वं, अब्भोखितो पुरपहेसु सो अण्णया विचिंतइ, वसि वसिउं न जुज्जए मज्झ [ असुइजणसंगदुढे, एत्थं हि सुइत्तणं कत्तो ता जलनिहिणो दीवे, कम्मि वि जणविरहियम्मि गंतूण । अच्छामि उच्छुमाऽऽईहिं, पाणवित्तिं पकप्पितो एवं कयसंकप्पो, परतीरपयट्टजाणवत्तेण । उयहिं विलंघिऊणं, थक्को सो उच्छुदीवम्मि उच्छुमऽतुच्छं छुहिओ, जहिच्छमऽणुवासरं च भुंजतो। पडिभग्गो उच्छुच्छल्लि-छणियवणो परं भोज्जं अवलोयंतो पेच्छइ, एगस्थ सगुद्दभिण्णनावस्य। वणिणो उच्छुरसेणं, उप्पाइयदढविरेयस्स उच्चारं उच्छृणं, हेट्ठा निस्संकमाणसो तं च । पिंडीभूयं उच्छुप्फलं ति, भक्खेउमाऽऽरुद्धो कालेण तस्स वणिएण, दंसणं तेण कहवि संपण्णं । सह संवासाउ च्चिय, जाया य परोप्परं पीई भोयणकाले पुच्छ, किं भक्खसि तेण जंपियं इक्खं । विप्पेण भणियमिक्खु-प्फलाई कि लहसि नो एत्थ वणिएणं संलत्तं, इक्खूण फलाई नेव जायंति । इयरेण भणियमाऽऽगच्छ, जेण दंसेमि इण्डिं पि ताहे कढिणीभूया, विट्ठा हेट्ठट्ठिया य इक्खूण । सा तेण दंसिया से, भणियं वणिएण ता एवं हा ! हा! महायर ! विमोहिओ सि एसो उ मज्झ उच्चारो । एवं सोउं विप्पो, विचिगिच्छं परममाऽऽवण्णो भणइ कहं भद्द ! एवं, विणएणं पच्चओ तओं विहिओ। तदऽवरवोसिरिउच्चार-कढिणसमरूवहेऊहिं परमं सोगमुवगओ, विप्पो तद्देशगामिनावाए। आरुहिऊणं पुणरवि, निययं ठाणं समणुपत्तो
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