Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh
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।। ७५३६ ॥ ॥७५३७॥ ॥ ७५३८॥ ॥७५३९॥ ॥ ७५४०॥ ॥ ७५४१॥ ॥७५४२॥ ॥ ७५४३॥ ॥ ७५४४ ॥ ॥७५४५॥
जह जह किर पडिबंधं, संसारपयत्थवित्थरे कुणइ । तह तह बंधइ कम्मं, इह मूढो गाढगाढयरं एवं पि नो विभावइ, पडिबंधो जत्थ कीरइ पयत्थे । स खलु विणासी तुच्छो, विचित्तभवहेउओ य तओ बीहसु भीमभवाओ, उव्वियसु य पुव्वविहियपावाओ। कुणसु पडिबंधचायं, जइ इच्छसि अप्पणो पत्थं जह जह संगच्चाओ, तह तह कम्माण अवचओ होइ । जह जह सो पुण तह तह, आसण्णं होइ परमपयं आराहणाकयमणो, मुणिवर! सव्वं पि पावपडिबंधं । ता दूरमुज्झिऊणं, आयाऽऽरामो भवसु निच्चं पंचममेवं भणियं, पडिबंधच्चायनामपडिदारं । सम्मत्तविसयमेत्तो, छटुं पडिदारमऽक्खेमि जमऽणंतम्मि वि न कयाइ, पत्तपुव्वं अईयकालम्मि। लंधिज्जइ गोपयमिव, जस्सामत्थेण भवजलही अल्लियइ पाणिकमले, जस्स पभावेण मोक्खसोक्खसिरी। जं च पवेसदुवारं, महल्लकल्लाणकोसस्स मिच्छत्तपबलहुयवह-तावियजीवाण जंच अमयं व। पडियारपयं पत्तं, सम्मत्तं खवग ! तं तुमए एत्थ य संपत्तम्मि, मा भाहिसि भीमभवभयाहिंतो। एयाऽणुगएहिं जओ, भवस्स सलिलंजली दिण्णो किंचनरयम्मि वरं अइदीहरं पि, कालं ठिओ समं इमिणा । मा पुण एयविउत्तस्स, देवलोगे वि उववाओ जम्हा नरयाउ इहाऽऽगयाण, सुद्धस्स तस्स अणुभावा। सुव्वंति केसु वि सुए, तित्थयरत्ताऽऽइलद्धीओ सम्मत्तगुणविहीणस्स, देवलोगाओ पुण चुयस्सेह । पुढवाऽऽईसु वि गमणं, सुव्वइ दीहट्ठिई य तहिं अंतोमुत्तमेत्तं पि, फासियं जइ भवेज्ज कहवि इमं । ता एस अणाऽऽई वि हु, भवोयही गोपयं मण्णे धणवमऽधणो वि पुरिसो, सम्मत्तमहाधणं हि जस्सऽस्थि । इहभवसुही जइ धणी, सुही सुदिट्ठी पइभवंपि सम्मत्तरयणमऽइयार-पंसुपरिवज्जियं मणोभवणे । जस्स वियंभइ मिच्छत्त-तिमिरविहुरो कहं स भवे सव्वाऽइसयनिमित्तं, मणम्मि सम्मत्तलक्खणो मंतो । जस्सऽत्थिन तं पुरिसं, मोहपिसाओ छलेउमऽलं जस्स मणोगयणयले, सम्मत्तदिवायरो परिप्फुरइ । न कुमयजोइसचक्र, तम्मि पयासं पि पाउणइ पासंडिदिट्ठिविस-विसयगो वि, सम्मत्तदिव्वमणिधारी। जो न हु कुवासणाविस-संकन्ती तस्स संभवइ तो मा कासि पमायं, सम्मत्ते सव्वदुक्खखयजणगे । जेणेयपइट्ठाणाई, नाणतववीरियचरणाई नगरस्स जह दुवारं, मुहस्स चक्खं तरुस्स जह मूलं । तह जाणसु सम्मत्तं, वीरियतवनाणचरणाणं भावाऽणुरायपेमाऽणुराय-सुगुणाऽणुरायरत्तो य । धम्माऽणुरायरत्तो य, होसु जिणसासणे निच्चं अण्णो को वि पभावो, इमस्स निस्सेसगुणपहाणस्स । सम्मत्तमहारयणस्स, पावियस्सेह जं भणियं जस्स दिवसं पि एकं, सम्मत्तं निच्चलं जहा मेरू । संकाऽऽइदोसरहियं, न पडइ सो नरयतिरिएसु दसणभट्ठो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपन्भट्ठो । दंसणमऽमुयंतस्स हु, परियडणं नऽत्थि संसारे सुद्धे सम्मत्ते अविरओ वि, अज्जिणइ तित्थयरनामं । जं आगमेसिभद्दा, हरिकुलपहु-सेणिया जाया कल्लाणपरंपरयं, लभंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता। सम्मत्तमहारयणं, नऽग्घइ ससुराऽसुरो लोगो सो च्चिय जयम्मि जाओ, पत्तं सम्मत्तरयणमिह जेण । अरहट्टजंतसरिसे, संसारे को किर न जाओ निज्जियचिंतामणिकप्प-पायवं ता लहित्तु सम्मत्तं । तुमए एत्थं सुंदर!, खणं पि जत्तो न मोत्तव्वो सम्मत्तजाणवत्तं, अप्पत्ता दुत्तरे भवसमुद्दे । एत्थ निमज्जिस्संति, तहा निमग्गा निमज्जंति सम्मत्तजाणवत्तं, पावित्ता दुत्तरंपि भवजलहिं । तिण्णा तरंति भविया, अचिरेण तहा तरिस्संति आराहणाकयमणो, मणोरहाणं पि दुल्लहं तम्हा । पावित्ता सम्मत्तं, धीर! तुम मा पमाएज्ज इहरा उ पमायपरस्स, पत्थुयाऽऽराहणा इमा तुज्झ । नाव व्व भट्ठिपत्ता, तडत्ति विहडिस्सइ नूणं सम्मत्तणामधेयं, छटुं पडिदारमेवमऽक्खायं । अरिहाऽऽइछक्कभत्ती-विसयं अह सत्तमं भणिमो अरिहंत सिद्ध चेइय-आयरि उज्झाय साहुणो त्ति इमं । छक्कं सिवपुरपयवी-सत्थाहसमं मुणेऊण हे खवग! हरिसपयरिस-वसवियसियहिययसररुहस्संतो। भत्तीए धरसु सम्मं, निविग्धं पत्थुयऽत्थकए एगा वि किर समत्था, जिणभत्ती दुग्गइंणिवारेउं। दुलहाई लहावेउं, आसिद्धिपरंपरसुहाई
॥७५४६ ॥ ॥ ७५४७॥ ॥७५४८॥ ॥७५४९॥ ॥ ७५५०॥ ॥ ७५५१ ॥ ।। ७५५२॥ ।। ७५५३ ॥ ।। ७५५४ ॥ ॥ ७५५५॥ ॥७५५६॥ ।। ७५५७॥ ।। ७५५८॥ ॥ ७५५९॥ ।। ७५६०॥ ।। ७५६१॥ ।। ७५६२॥ ।। ७५६३॥ ॥ ७५६४॥ ॥७५६५॥ ॥७५६६॥ ॥ ७५६७॥ । ७५६८॥ ।। ७५६९॥ ॥ ७५७०॥ ॥ ७५७१॥ ॥ ७५७२॥
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