Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh

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Page 237
________________ ता खवग! विसयवंछा, जइ होज्ज कयाइ मोहदोसेण । तह वि हु होसु उवउत्तो, पंचविहे इत्थीवेरग्गे जायं पंकम्मि जलम्मि, वढियं पंकयं जह न तेहि। लिप्पइ मुणी वि एवं, विसयसलिलइत्थिपंकेहि बहुदोससावयगणे, मायामाइण्हियासणाहम्मि । कुमइगहणे वि मुणी, न मुज्झइ इत्थिरण्णम्मि सव्वम्मि इत्थिवग्गम्मि, अप्पमत्तो सया सुवीसत्थो । बंभवयं णित्थरइ, चरित्तमूलं सुगइहेउं मज्झण्हतिक्खसूरं व, इत्थिरूवं न पासइ चिरं जो। खिप्पं पडिसाहरइ य, दिढेि सो नित्थरइ बंभं किं जंपइ कह पासइ, परो ममं कहमऽहं च वट्टामि । इइ जो सयाऽणुवेहइ, सो दढबंभव्वओ होइ जोव्वणजलहिं दरहसिय-जंपिउम्मीचियं विसयसलिलं । धण्णा समुत्तरंती, महिलामगरेहिं अच्छिक्का अब्भिन्तरबाहिरिए, सव्वे गंथे तुमं विवज्जाहि । कयकारियअणुमईहिं, मणवइकाएहि तत्थ इहं मिच्छत्तं वेयतिगं, जाणसु हासाऽऽइयाण छक्कं च । कोहाऽऽईण चउक्कं, चोद्दस अब्भिन्तरा गंथा बाहिरगंथं खेत्तं, वत्थु धणधण्णकुप्परुप्पाणि । दुपयचउप्पयमऽपयं, सयणाऽऽसणमाऽऽइ जाणाहि जह कुंडओ न सक्का, सोहेउं तंदुलस्स सतुसस्स । तह जीवस्स न सक्का, कम्ममलं संगसहियस्स जइया रागा दोसा, गारवसण्णाउ तह उदयमेंति । तइया गंथं घेत्तुं, लुद्धो बुद्धि कुणइ तत्तो .. तस्स निमित्तं मारइ, भणेइ अलियं करेइ चोरिकं । सेवइ मेहुणमऽत्थं च, अपरिमाणं कुणइ जीवो सण्णागारवपेसुण्ण-कलहफरुस्साणि भंडणविवाया। के के न होंति अच्चत्थ-मऽत्थवामोहमूढस्स गंथो भयं नराणं, सहोयरा एलगच्छया जं ते । अण्णोऽण्णं मारेउं, अत्थनिमित्तं मइमऽकासी अत्थनिमित्तमऽइभयं, जायं चोराणमेक्कमेक्केहिं । मज्जे मंसे य विसं, संजोइय मारिया जं ते संगो महाभयं जं, विहेडिओ सावएण संतेण । पत्तेण हिए अत्थम्मि, मणिवई कंचिएणाऽवि अत्थनिमित्तं सीयं, उण्हं तण्हं छुहं च वासं च । दुस्सेज्जं दुब्भत्तं च, सहइ वहई य गुरुभारं गायइ नच्चइ धावइ, कंपइ विलवेइ मलइ असुइंपि। नीयं च कुणइ कम्म, कुलम्मि जाओ वि गंथऽत्थी एवं चिटुंतस्स वि, संसइओ होइ अत्थलाभो से । न य संचीयइ अत्थो, सुचिरेण वि मंदभग्गस्स जइ पुण कहिचि संचय-मुवेइ अत्थो तहाऽवि से नत्थि। तित्ती पउरऽत्थेण वि, लाभे लोभो पवड्ढइ जं जइ इंधणेण अग्गी, न तिप्पइ जलनिही जलनईहिं । तह जीवस्स न तित्ती, अत्थि तिलोए वि लद्धम्मि आहम्मइ मारिज्जइ, रुब्भइ भिज्जइ य निरवराहो वि । धणवं आमिसहत्थो, तत्थो पक्खीहिं जह पक्खी मायापिइपुत्तेसु वि, दारेसु वि नेय जाय वीसंभं । गंथनिमित्तं जग्गइ, रक्खंतो सव्वरत्ति पि अंतोहुत्तं डज्झइ, पुरिसो नढे सयम्मि अत्थम्मि। उम्मत्तो इव विलवइ, परिदेवइ कुणइ उक्कंठं गंथस्स गहणरक्खण-सारवणाई सयं करेमाणो । वक्खित्तमणो झाणं, उवेइ कह मुक्कमज्जाओ गंथेसु गेढियहियओ, होइ दरिदो भवेसु बहुएसु । गंथनिमित्तं कम्मं, किलिट्ठहियओ समाइयइ एएहिं दोसेहिं, मुच्चइ मुंचंतओ मुणी अत्थं । परमऽब्भुदयपहाणं, पावेइ गुणाण पब्भारं सप्पबहुले अरण्णे, अमंतविज्जोसहो जहा पुरिसो। पावइ अणत्थमऽत्थं, धरंतओ तह मुणी वि परं रागो होइ मणुण्णे, गंथे दोसो य होइ अमणुण्णे । गंथच्चाएण पुणो, रागद्दोसा दुवे चत्ता सीउण्हदसमसगाऽऽइयाण, दिण्णो परीसहाण उरो। तव्विणिवारणहेउं, अत्थं दूरे चयंतेण निस्संगो चेव सया, कसायसंलेहणं कुणइ साहू ! संगो कसायहेऊ, अग्गिस्स व होति कट्ठाणि सव्वत्थ होइ लहुओ, रूवं वेसासियं भवइ तस्स । गरुओ य संगसत्तो, संकिज्जइ चेव सव्वत्थ तम्हा सव्वे संगे, अणागए वट्टमाणएऽतीए । परिहरसु तुमं सुविहिय! कयकारियअणुमईहिं सया इय चत्तसव्वसंगो, सीईभूओ पसंतचित्तो य । जीवंतो च्चिय पावइ, साहू निव्वाणसुहमऽणहं १. जंपिउम्मीचियं = जल्पितोमिचितम्, २. गढिय - आसक्त, ॥ ८१४०॥ ॥ ८१४१॥ ॥ ८१४२ ॥ ॥८१४३॥ ॥८१४४॥ ॥ ८१४५॥ ॥ ८१४६॥ ॥८१४७॥ ॥८१४८॥ ॥ ८१४९ ॥ ॥ ८१५०॥ ॥८१५१॥ ॥ ८१५२॥ ॥८१५३॥ ॥८१५४॥ ॥८१५५॥ ॥८१५६॥ ॥८१५७॥ ॥८१५८॥ ॥ ८१५९॥ ॥ ८१६०॥ ॥८१६१॥ ॥८१६२॥ ॥ ८१६३ ॥ ॥८१६४॥ ॥८१६५॥ ॥८१६६॥ ॥८१६७॥ ॥८१६८॥ ॥८१६९ ॥ ॥ ८१७०॥ ॥८१७१ ॥ ॥८१७२॥ ॥ ८१७३ ॥ ॥८१७४ ॥ २३०

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