Book Title: Sambodh Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha
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इयद साहा - रणं च जो दुहइ मोहियमईओ । धम्मं च सो न याणइ अहवा बढाउओ नरए ॥ १०७ ॥ जिणदव्वले सजणियं ठाणं जिणदव्वभोयणं सव्वं । साहूहिं चइयव्वं जइ तंमि वसिज्ज पच्छित्तं ॥ १०८ ॥ छलहुयं छग्गुरुयं भिन्नमासो य पइदिणं जाव । कप्पविहाराईयं भणियं निष्ठ्ठागयं कप्पे ॥ १०९ ॥ आयाणं जो भुंजइ पडिवण्णघणं न देइ देवस्स । नस्संत समुविख्कइ सो वि हु परिभमइ संसारे ॥ ११० ॥ उक्कोसं दव्वत्थयं आराहिये जाइ अच्चुयं जाव । भावत्थएण पावइ अंतमुहुत्तेण निव्वाणं ॥ १११ ॥ तम्हा सव्वपारा या पढमा गिट्टीणमाइष्ठा । बीया सव्वपयारा साहूणं पवयणविहिए हुं ॥ ११२ ॥ जिणमुद्दाण चउकंभि पवरापीइमणुद्धरा भत्ती । आसायणवज्जणया तस्साणाए परमजयणा ॥ ११३॥ तब्भत्तीए भासा पण्णवणी तेसिमविहिणिण्हवणी । संसयवुच्छेयकरणी भासिज्जइ पवयणाणुगओ ११४ ॥ egistrar तिवा हिंसा जिणेहिं निद्दिष्ठा । णिच्छयववहाराहिं भासिज्जइ पवयणाणुगओ ॥ ११५ ॥ गीत्थवणणाहा मग्गसणाहा सया जहि किरिया । णिश्च जिणझाणपरा तवसंजमजोगसंजुत्ता ॥ ११६ ॥ सिं सम्वयारा भावत्यवओ हविज्ज जिणपूया । जइकरणे सयरित्ता तग्गयसुहफलणुमोयणया ॥११७॥ अकसिणपवत्तगाणं विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणो दव्वत्थए कूवदितो ॥ ११८ ॥ भावत्थयस्स हेऊ दव्वं हेऊत्तिसहओ णेयं । थलगामंसिरा कूवा दिठ्ठेता तत्थिमे जाण ॥ ११९ ॥ कायसमुत्था पुवं पच्छाउविसुद्ध कम्मफला । इच्चाइमुसा भासा णेया भासाकुसीलाणं ॥ १२० ॥
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