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( २७ ) कई गीतों में ऋषि कल्पना भी बड़े सुन्दर रूप में प्रगट हुई है । इन सबके उदाहरण नोट किये हुये होने पर भी, यहां विस्तार भय नहीं दिये जा रहे हैं । कभी विस्तृत विवेचन का अवसर मिला तो अपने उन नोट्स का उपयोग किया जा सकेगा ।
महोपाध्याय विनयसागरजी ने कवि का परिचय देते हुए कथाकोश की पूरी प्रति नहीं मिलने का उल्लेख किया है । यद्यपि इसकी कई प्रतियां हमें प्राप्त हुई हैं, जिनमें से एक तो कवि की स्वयं लिखित है । पर भिन्न-भिन्न प्रतियों के मिलाने से ऐसा मालूम पड़ता है कि कवि ने दो तरह के क्थाकोश बनाये हैं । एक में अन्य विद्वानों के ग्रन्थों से कथाएं उद्धृत व संगृहीत की गई हैं और दूसरे में उन्होंने स्वयं बहुत सी कथाएँ लिखी हैं। इनमें से पहले प्रकार की एक प्रति नाहरजी के संग्रह में मिली और दूसरी की एक पूरी प्रति स्व० जिनऋद्धिसूरिजी के संग्रह में से प्राप्त हुई है । इसमें १६७ कथाएँ हैं । पर कवि के अन्य ग्रन्थों की भाँति इसमें प्रशस्ति नहीं मिलने से सम्भव है कुछ और भी कथाएँ लिखनी रह गई हों या प्रशस्ति नहीं लिखी गई हों । 'कथापत्राणि' नामक कवि के स्वयं लिखित फुटकर पत्रों की एक प्रति मिली है, जिसके १३७ या १५५ पत्र (दोनों हांसियों पर दो संख्याक ) थे । इसमें ११४ कथाएँ हैं और ग्रंथ परिमाण करीब ६००० श्लोक का लिखा है । अंत में कवि ने स्वयं लिखा है कि
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" सं० १६६५ वर्षे चैत्र सुदि पंचमी दिने श्री जालोर नगरे लिखितं श्री समयसुन्दर उपाध्यायैः । इयं कथाकोशप्रति मयि जीवति मदधीना, पश्चात् पं० हर्षकुशलमुनेः प्रदत्तास्ति । वाच्यामाना चिरं विजयताम् ।"
अर्थात् कविवर स्वयं जहां तक जीवित रहे अपनी रचनाओं में उचित परिवर्तन परिवर्द्धन करते रहे हैं ।
कवि के रचित माघ काव्य की टीका के केवल तृतीय सर्ग की वृत्ति के मध्य पत्र चूरु सुराना लाइब्रेरी में स्वयं लिखित मिले हैं। उसमें बीच
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