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( २५ ) और बहुत से लोक प्रचलित गीतों की देशी या चाल में। उनके 'रास-चौपाई आदि में भी इन लोक गीतों की देशियों को खूब
अपनाया गया है। सीताराम चौपाई जो लोक भाषा की आपकी सबसे 'बड़ी कृति है, में लगभग ५० देशियें हैं। कवि ने इस चौपाई में देशियों के आदि पद्य के साथ ऐसा भी निर्देश किया है कि"ए गीत सिंध मांहे प्रसिद्ध छ, नोखा रा गीत मारूयाड़ी, हूँदाड़ी नागोर नगरे प्रसिद्ध छै। दिल्ली रा गीतरी ढाल मेड़ता आदि देशे प्रसिद्ध छै" और अन्त में कहा है कि
सीताराम नी चौपाई, जे चतुर हुई ते वाँचो रे । राग रतन जवहर तणो, कुण भेद लहै नर काचो रे ।। नवरस पोष्या मै इहां, ते सुघड़ो समझो लेज्यो रे । जे जे रस पोष्या इहां, ते ठाम देखाड़ी देज्यो रे॥ के के ढाल विषम कही, ते दूषण मत द्यौ कोई रे । स्वाद साबुणी जे हुवै, नै लिंग हदै कदे न होई रे॥१॥ जे दरबार गयो हुसे, दुढादि, मेवादि ने दिल्ली रे । गुजराति मारवाडि में, ते कहिस ए भल्ली रे।। मत कहो मोटी का जोड़ी, बांचतां स्वाद लहैसो रे । नवनवा रस नवनवी कथा, सांभलतां साबास देसो रे॥ गुण लेज्यो गुणियण तणो, मुझ मसकति साहमोजोज्यो रे। अणसहतां अवगुण ग्रही, मत चालणि सरखा होज्यो रे।। बालस अभिमान छोडि नै, सूधी प्रत हाथ लेई रे । ढाल लेजो तुमे गुरु मुखे, वली रागनो उहयोग देई रे॥ सखर सभा मांहे बांचजै, बेजणा मिल मिलते सादे रे। नरनारी सहु-रीझसै, जस लेहसो गुरु प्रसादे रे ॥
कवि की कविता में एक स्वाभाविक प्रवाह है। भाषा में सरलता तो है ही, क्योंकि उनकी रचना का उद्देश्य पांडित्य-प्रदर्शन
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