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( २६ ) नहीं । पर जैसा कि उन्होंने अपने अनेक ग्रन्थों में भाव व्यक्त किया है कि साधु और सती के गुणानुवाद में मुझे बड़ा रस है।
और बहुत सी रचनाएँ तो उन्होंने अपने शिष्यों और श्रावकों के सुगम बोध के लिये ही बनाई है। कुछ अपनी स्मृति की रक्षार्थ । इन सब कारणों से कवि प्रतिभा का चमत्कार उतना नहीं दिखाई देता जितना कि स्वाभाविक सारल्य ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में संकलित गीतों का भक्ति, प्रेरणा, प्रबोध प्रधान विषय है। भक्ति का स्रोत अनेक रचनाओं में बह चला है। विमलाचल मण्डन आदि जिन स्तवन में कवि कहता है कि
विमलगिरि क्यों न भये हम मोर, क्यों न भये हम शीतल पानी, सींचत तरुवर छोर । अहनिश जिनजी के अङ्ग पखालत. तोड़त कर्म कठोर । वि. १॥ क्यों न भये हम बावन चन्दन, और केसर की छोर । क्यों न भये हम मोगरामालती,रहते जिनजी की ओर । वि.२। क्यों न भये हम मृदङ्ग झलरिया, करत मधुर धुनि मोर । जिनजी आगल नृत्य सुहावत, पावत शिवपुर ठौर । वि.३।
इसी प्रकार अन्य गीतों में भी कहीं पर पांख न होने से पहुंच न सकने की शिकायत, कहीं पर चन्द्रमा द्वारा सन्देश भेजना, कहीं पर स्वयं न पहुंच सकने की वेदना व्यक्त की है। इस प्रकार नाना प्रकार के भक्ति के उद्गार इस ग्रन्थ में प्रकाशित गीतों में मिलेंगे। उन सबके उद्धरण देने का बहुत विचार था, पर विस्तार भय से उस इच्छा को संवरित करना पड़ा है। प्रेरणा गीतों में कवि अपने शिष्यों को कितने ढङ्ग से प्रेरित कर रहा है, यह इस ग्रंथ के पृष्ठ ४३६-३७ में प्रकाशित पठन प्रेरणा और क्रिया प्रेरणा गीत में पढ़िये । इसी प्रकार प्रबोध गीत भी पृ० ४२० से प्रारम्भ होते हैं ।
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