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Samadhitantram
नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । तिर्यञ्चं तिर्यगङ्गस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा ॥८॥
नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा । अनन्तानन्तधीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः ॥ ९ ॥
अन्वयार्थ - ( अविद्वान् ) मूढ़ बहिरात्मा (नरदेहस्थम् ) मनुष्य देह में स्थित (आत्मानम्) आत्मा को (नरम् ) मनुष्य, ( तिर्यगङ्गस्थं ) तिर्यञ्च शरीर में स्थित आत्मा को (तिर्यञ्चं ) तिर्यञ्च, (सुराङ्गस्थं) देव शरीर में स्थित आत्मा को ( सुरं) देव (तथा) और (नारकाङ्गस्थं) नारक शरीर में स्थित आत्मा को ( नारकं ) नारक ( मन्यते ) मानता है। किन्तु (तत्त्वतः ) वास्तव में
शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से (स्वयं) कर्मोपाधि से रहित स्वयं आत्मा (तथा न) मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नारक रूप नहीं है। [ तत्त्वतस्तु ] निश्चयनय से तो यह आत्मा ( अनन्तानन्तधीशक्ति: ) अनन्तानन्त ज्ञान और अनन्तानन्त शक्तिरूप वीर्य का धारक है । ( स्वसंवेद्यः ) स्वानुभवगम्य है अपने द्वारा आप अनुभव किए जाने योग्य है और ( अचलस्थितिः ) अपने उक्त स्वभाव से कभी च्युत न होने वाला - उसमें सदा स्थिर रहने वाला - है ।
The ignorant, extroverted-soul (bahirātmā) assumes that the soul in the body of a human being is human, in the body of a plant or animal is plant or animal, in the body of a celestial being is celestial, and in the body of an infernal being is infernal. But in reality, from the pure point of view, the soul itself is not human being, plant or animal, celestial being, or infernal being. From the same point of view, the soul has infinite knowledge and infinite strength, to be experienced by the Self, and it maintains eternally its pure nature.
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