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Verse 99
इतीदं भावयेन्नित्यमवाचांगोचरं पदम् । स्वत एव तदाप्नोति यतो नावर्तते पुनः ॥९९॥
अन्वयार्थ - (इति) उक्त प्रकार से (इदं) भेद-अभेदरूप आत्मस्वरूप की (नित्यं) निरन्तर ( भावयेत् ) भावना करनी चाहिए। ऐसा करने से (तत्) उस (अवाचांगोचरं पदम् ) अनिर्वचनीय परमात्म-पद को (स्वत एव) स्वयं ही यह जीव (आप्नोति) प्राप्त होता है (यतः) जिस पद से ( पुनः) फिर (न आवर्तते) लौटकर आना नहीं होता है - पुनर्जन्म लेकर संसार में भ्रमण करना नहीं पड़ता है।
Thus, one must incessantly adore the supreme status of the soul through non-self as well as self identities. This way, the soul, on its own, attains the ineffable status of the Supreme Being (paramātmā) that is eternal and signifies end of transmigration.
EXPLANATORY NOTE Ācārya Kundakunda’s Samayasāra: अप्पाणमप्पणा रुधिदूण दोपुण्णपावजोगेसु। दसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि॥
(६-७-१८७)
(६-८-१८८)
जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणा अप्पा। ण वि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं॥ अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमइओ अणण्णमओ। लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं॥
(६-९-१८९)
The Self, by his own enterprise, protecting himself from virtuous as well as wicked activities that cause merit and demerit, and
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