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Verse 100
अयत्नसाध्यं निर्वाणं चित्तत्त्वं भूतजं यदि । अन्यथा योगतस्तस्मान्न दुःखं योगिनां क्वचित् ॥१००॥
अन्वयार्थ - (चित्तत्त्वं) चेतना लक्षण वाला यह जीव तत्त्व ( यदि भूतजं) यदि भूतज है - चार्वाक-मत के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप भूतचतुष्टय से उत्पन्न हुआ है अथवा सांख्य-मत के अनुसार सहज शुद्धात्म-स्वरूप से उत्पन्न है - उस शुद्धात्म-स्वरूप के संवेदना द्वारा लब्धात्मरूप है तो (निर्वाणं) निर्वाण - मोक्ष (अयत्नसाध्यं) यत्न से सिद्ध होने वाला नहीं रहेगा। अर्थात् चार्वाक-मत की अपेक्षा, जो कि शरीर के छूट जाने पर आत्मा में किसी विशिष्ट अवस्था की प्राप्ति का अभाव बतलाता है, मरणरूप शरीर का विनाश होने से आत्मा का अभाव हो जाएगा और यही अभाव बिना यत्न का निर्वाण होगा, जो इष्ट नहीं हो सकता। और सांख्य-मत की अपेक्षा स्वभाव से ही सदा शुद्धात्म-स्वरूप का लाभ मान लेने से मोक्ष के लिये ध्यानादिक कोई उपाय करने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी, और इस तरह निरुपाय मुक्ति की प्रसिद्धि होने से बिना यत्न के ही निर्वाण होना ठहरेगा जो उस मत के अनुयायियों को भी इष्ट नहीं है। (अन्यथा ) यदि चैतन्य आत्मा भूतचतुष्टय-जन्य तथा सदा शुद्धात्म-स्वरूप का अनुभव करने वाला नित्यमुक्त नहीं है तो फिर (योगतः) योग से स्वरूप-संवेदनात्मक-चित्तवृत्ति के निरोध का दृढ अभ्यास करने से - सकल विभावपरिणति को हटाते हुए - ही निर्वाण की प्राप्ति होगी (तस्मात् ) चूँकि वस्तु-तत्त्व की ऐसी स्थिति है इसलिये (योगिनां) निर्वाण के लिये प्रयत्नशील योगियों को (क्वचित् ) किसी भी अवस्था में - दुर्द्धरानुष्ठान के करने तथा छेदन-भेदनादि रूप उपसर्ग के उपस्थित होने पर (दुःखं न) कोई दु:ख नहीं होता है।
If the soul-substance - characterized by consciousness - is produced, as the Cārvāka believe, by the union of four basic substances – earth (prthvi), water (jala), fire (agni), and air
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