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Samādhitantram
शरीरकञ्चुकेनात्मा संवृतज्ञानविग्रहः । नात्मानं बुध्यते तस्माद्धमत्यतिचिरं भवे ॥६८॥
अन्वयार्थ - (शरीरकञ्चुकेन) कार्माण-शरीर रूपी कांचली से (संवृतज्ञानविग्रहः आत्मा) ढका हुआ है ज्ञान-रूपी शरीर जिसका ऐसा बहिरात्मा (आत्मानं) आत्मा के यथार्थ स्वरूप को (न बुध्यते) नहीं जानता है और (तस्मात् ) उसी अज्ञान के फलस्वरूप ( अतिचिरं) बहुत काल तक (भवे ) संसार में (भ्रमति) भ्रमण करता है।
The extroverted-soul (bahirātmā) whose karma-body envelops the knowledge-body does not realize the true soul-nature and, as a result, whirls around in the world for a very long time.
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