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Samādhitaitram
ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम् । दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चलः ॥७३॥
अन्वयार्थ - (अनात्मदर्शिनाम् ) जिन्हें आत्मा की उपलब्धि - उसका दर्शन अथवा अनुभव नहीं हुआ है उन्हें (ग्रामः अरण्यं) यह गाँव है और यह जंगल है (इति द्वेधा निवासः) इन दो प्रकार के निवासों के विकल्प होते हैं (तु) किन्तु (दृष्टात्मनां) जिन्हें आत्मस्वरूप का अनुभव हो गया है ऐसे ज्ञानी पुरुषों के लिए (विविक्त) रागादि-रहित विशुद्ध और (निश्चलः ) निश्चल - चित्त की आकुलता रहित, स्वरूप में स्थित – (आत्मा एव) आत्मा ही (निवासः) रहने का स्थान है।
Those who have not yet envisioned the soul reckon their dwelling as either a village or a forest. However, those who have envisioned the soul reckon that only the pure soul – rid of attachment and aversion, and steady - established in own nature-is their dwelling.
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