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Samādhitantram
पूर्वं दृष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवज्जगत् । स्वभ्यस्तात्मधियः पश्चात् काष्ठपाषाणरूपवत् ॥८०॥
अन्वयार्थ - (दृष्टात्मतत्त्वस्य) जिसे आत्मदर्शन हो गया है ऐसे योगी जीव को (पूर्व) योगाभ्यास की प्राथमिक अवस्था में (जगत् ) यह जगत् - प्राणिसमूह (उन्मत्तवत् ) उन्मत्त सरीखा (विभाति) प्रतीत होता है किन्तु (पश्चात्) बाद में जब योग की निष्पन्नावस्था हो जाती है तब (स्वभ्यस्तात्मधियः) आत्मस्वरूप के अभ्यास में परिपक्वबुद्धि हुए अन्तरात्मा को (काष्ठपाषाणरूपवत) यह जगत् काठ तथा पत्थर के समान प्रतीत होता है।
To the yogi treading the path to soul-realization, in the initial stage, the world seems furious and wild as if inebriated, and later, as he gets to perfection, the world seems listless as if made of wood or stone.
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