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Verse 33
यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् । लभते स न निर्वाणं तप्त्वाऽपि परमं तपः ॥३३॥
अन्वयार्थ - (एवं) उक्त प्रकार से (यः) जो (अव्ययम् ) अविनाशी (आत्मानं ) आत्मा को (देहात् ) शरीर से ( परं न वेत्ति) भिन्न नहीं जानता है (सः) वह (परमं तपः तप्त्वाऽपि) घोर तपश्चरण करके भी (निर्वाणं) मोक्ष को (न लभते ) प्राप्त नहीं करता है।
As stated, the one who fails to realize that the immortal soul is utterly distinct from the body does not attain liberation even after performing severe austerity.
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