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यद् बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं यदहं पुनः । ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ॥५९॥
Verse 59
अन्वयार्थ - (यत्) जिस विकल्प के द्वारा आत्मस्वरूप को अथवा देहादिक को (बोधयितु) समझाने की ( इच्छामि ) मैं इच्छा करता हूँ (तत्) वह (अहं न ) मैं नहीं हूँ - आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं हूँ। (पुनः) और (यत्) जो चिदानन्दमयी स्वयं अनुभव करने योग्य आत्मस्वरूप (अहं) मैं हूँ (तदपि ) वह भी ( अन्यस्य ) दूसरे जीवों के ( ग्राह्यं न ) उपदेश द्वारा ग्राह्य नहीं है वह तो स्वसंवेदन के द्वारा अनुभव किया जाता है (तत्) इसलिये (अन्यस्य) दूसरे जीवों को (किम् बोधये ) मैं क्या समझाऊँ?
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Pure soul-nature that I wish to explain to others is beyond description; no words can express pure soul-nature. Soul-nature that is eternally blissful, to be experienced by the Self alone, cannot be grasped by others through dialogue. Therefore, what can I talk about?
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