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Samādhitantram
यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये । उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥१९॥
अन्वयार्थ - ( अहं) मैं (परैः) दूसरों के द्वारा अर्थात् उपाध्याय आदिकों से ( यत् प्रतिपाद्यः) जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ और ( परान् ) दूसरों को अर्थात् शिष्यादिकों को (यत् प्रतिपादये) जो मैं प्रतिपादन करता हूँ (तत्) वह सब (मे) मेरी (उन्मत्तचेष्टितं) उन्मत्त चेष्टाएं हैं ( यदहं ) क्योकि मैं (निर्विकल्पकः) विकल्प रहित हूँ - वास्तव में इन सभी वचन-विकल्पों से अग्राह्य हूँ।
Getting elucidation from others and giving elucidation to others about the 'Self" are my insane actions; the 'Self" is one whole (with the wealth of infinite, inseparable attributes), beyond description in words.
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