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Verse 20
यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति । जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥२०॥
अन्वयार्थ - (यत्) जो शुद्धात्मा (अग्राह्य) ग्रहण न करने योग्य को (न गृह्णाति) ग्रहण नहीं करता है और (गृहीतं अपि) ग्रहण किए गए अनन्तज्ञानादि गुणों को (न मञ्चति) नहीं छोड़ता है तथा (सर्वं) सम्पूर्ण पदार्थों को (सर्वथा) सब प्रकार से (जानाति) जानता है (तत्) वही (स्वसंवेद्यं) अपने द्वारा ही अनुभव में आने योग्य चैतन्य-द्रव्य (अहं) मैं (अस्मि ) हूँ।
The one who does not take in that which is not worthy to hold, does not give up that which it inherently holds, and knows completely all substances, is the real 'Self, to be experienced by the Self.
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