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तरह पर ग्रंथमें शामिल हो गये हैं। ऐसे पद्योंको वे लोग 'क्षेपक ' अथवा
प्रक्षिप्त ' कहते हैं और इस लिये ग्रन्थपर संदेहका यह एक दूसरा प्रकार है जिसका यहाँ पर विचार होनेकी जरूरत है
ग्रंथपर इस प्रकारके संदेहको सबसे पहले पं० पन्नालालजी बाकलीवालने, सन् १८९८ ईसवीमें, लिपिबद्ध किया। इस सालमें आपने रत्नकरंडश्रावकाचारको अन्वय, और अन्वयानुगत हिन्दी अनुवादसहित तयार करके उसे 'दिगम्बर जैनपुस्तकालय-वर्धा ' द्वारा प्रकाशित कराया है। ग्रंथके इस संस्करणमें २१ इक्कीस पद्योंको 'क्षेपक' प्रकट किया गया अथवा उनपर 'क्षेपक ' होनेका संदेह किया गया है जिनकी क्रमिकसूची, कुछ आद्याक्षरोंको लिये हुए, निम्न प्रकार है
तावदंजन; ततोजिनेंद्र; यदि पाप; श्वापि देवो; भयाशास्नेह; मातगो धनश्री; मद्यमांस; प्रत्याख्यान; यदनिष्टं; व्यापार; श्रीषेण, देवाधिदेव; अर्हचरण; निःश्रेयस; जन्मजरा; विद्यादर्शन; कालेकल्प; निःश्रेयसमधिपन्ना; पूजार्था; सुखयतु।
इन पद्योंमेंसे कुछके 'क्षेपक' होनेके हेतुओंका भी फुट नोटों द्वारा उल्लेख किया गया है जो यथाक्रम इस प्रकार हैं
'तावदंजन' और 'ततोजिनेंद्र' ये दोनों पद्य समन्तभद्रकृत नहीं हैं; परंतु दूसरे किसी आचार्य अथवा ग्रंथके ये पद्य हैं ऐसा कुछ बतलाया नहीं। तीसरे 'यदि पाप' पद्यका ग्रंथके विषयसे संबंध नहीं मिलता। 'श्वापि देवो' 'भयाशा'
और 'यदनिष्टं' नामके पद्योंका सम्बंध, अन्वय तथा अर्थ ठीक नहीं बैठता। 'श्रीषेण, 'देवाधिदेव' और 'अर्हच्चरण' ये पद्य ग्रंथके स्थलसे सम्बंध नहीं रखते। पद्रहवें 'निःश्रेयस 'से बीसवें 'पूजार्था' तकके ६ पद्योंका अन्वयार्थ तथा विषयसम्बंध ठीक ठीक प्रतिभास नहीं होता और ११ वाँ 'व्यापार' नामका पद्य 'अनभिज्ञ क्षेपक' है—अर्थात् यह पद्य मूर्खता अथवा नासमझीसे ग्रंथमें प्रविष्ट किया गया है । क्यों कि प्रथम तो इसका अन्वय ही ठीक नहीं बैठता; दूसरे अगले श्लोकमें अन्यान्य ग्रंथोंकी तरह, प्रतिदिन सामायिकका उपदेश है और इस श्लोकमें केवल उपवास अथवा एकासनेके दिन ही सामायिक करनेका उपदेश है, इससे पूर्वापर विरोध आता है । इस पद्यके सम्बंधमें जोरके साथ यह वाक्य भी कहा गया है कि " श्रीमत्समंतभद्रस्वामीके ऐसे वचन कदापि नहीं हो सकते," और इस पद्यका अन्वय तथा अर्थ भो नहीं दिया गया। अन्तिम
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