________________
करने आदिके लिये किसीको तर्क-पद्धतिका आश्रय लेनेकी जरूरत पड़ती। उस वक्त तकका प्रयोग प्रायः स्वपरमतके सिद्धान्तों तथा आप्तादि विवादग्रस्तविषयोपर ही होता था। वे ही तर्ककी कसौटीपर चढ़े हुए थे, उन्हींकी परीक्षा तथा निर्णयादिके लिये उसका सारा प्रयास था। और इसलिये उस वक्तके जो तर्कप्रधान ग्रंथ पाये जाते हैं वे प्रायः उन्हीं विषयोंको लिये हुए हैं । जहाँ विवाद नहीं होता वहाँ तर्कका काम भी नहीं होता। इसीसे छंद, अलंकार, काव्य, कोश, व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिषादि दूसरे कितने ही विषयोंके ग्रंथ तर्कपद्धतिसे प्रायः शून्य पाये जाते हैं । खुद स्वामी समंतभद्रका 'जिनशतक' नामक ग्रंथ भी इसी कोटिमें स्थित है-स्वामीद्वारा निर्मित होनेपर भी उसमें 'देवागम' जैसी तर्कप्रधानता नहीं पाई जाती-वह एक कठिन, शब्दालंकारप्रधान ग्रंथ है और आचार्य महोदयके अपूर्व काव्यकौशल, अद्भुत व्याकरणपांडित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्यको सूचित करता है। 'रत्नकरंडक'भी उन्हीं तर्कप्रधानतारहित ग्रंथोंमेंसे एक ग्रंथ है और इसलिये उसकी यह तर्कहीनता संदेहका कोई कारण नहीं हो सकती। ऐसा कोई नियम भी नहीं है जिससे एक ग्रंथकार अपने संपूर्ण ग्रंथोंमें एक ही पद्धतिको जारी रखनेके लिये वाध्य हो सके। नाना विषयोंके ग्रंथ नाना प्रकारके शिष्योंको लक्ष्य करके लिखे जाते हैं और उनमें विषय तथा शिष्यरुचिकी विभिन्नताके कारण लेखनपद्धतिमें भी अक्सर विभिनता हुआ करती है। यह दूसरी बात है कि उनके साहित्यमें प्रौढता, प्रतिपादनकुशलता और शब्दविन्यासादि कितनी ही बातोंकी परस्पर समानता पाई जाती हो और इस समानतासे 'रत्नकरंडक' भी खाली नहीं है।
यहाँ पर ग्रन्थकर्तृत्व सम्बधमें इतना और भी प्रकट कर देना उचित मालूम होता है कि मिस्टर बी. लेविस राइस साहबने, अपनी 'इन्स्क्रिप्शन्स ऐद श्रवणबेल्गोल' नामक पुस्तककी भूमिकामें रत्नकरंडकके सल्लेखनाधिकारसम्बन्धी 'उपसर्गे दुर्भिक्षे......' इत्यादि सात पद्योंको उद्धृत करते हुए, लिखा है कि यह 'रत्नकरंडक' 'आयितवा 'का बनाया हुआ एक ग्रन्थ है । यथा
The vow in performance of which they thus starved themselves to death is called Sallekhana and the following is the description of it in the Ratnakarandaka, a work by Ayit-Varmma.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org