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परंतु आयितवा कौन थे, कब हुए हैं और कहाँसे अथवा किस जगहकी ग्रन्थप्रतिपरसे उन्हें इस नामकी उपलब्धि हुई इत्यादि बातोंका भूमिकामें कोई उल्लेख नहीं है । हाँ आगे चलकर स्वामी समन्तभद्रको भी 'रत्नकरंडक'का कर्ता लिखा है और यह बतलाया है कि उन्होंने पुनर्दीक्षा लेनेके पश्चात् इस ग्रन्थकी रचना की है
Samantabhadra, having again taken diksha, composed the Ratna Karandaka & other Jinagam, Purans & became a professor of Syadvada.
यद्यपि, 'आयितवा ' यह नाम बहुत ही, अश्रुतपूर्व जान पड़ता है और जहाँ तक हमने जैनसाहित्यका अवगाहन किया है हमें किसी भी दूसरी जगहसे इस नामकी उपलब्धि नहीं हुई। तो भी इतना संभव है कि 'शांतिवर्मा की तरह 'आयितवर्मा' भी समन्तभद्रके गृहस्थजीवनका एक नामान्तर हो अथवा शांतिवर्माकी जगह गलतीसे ही यह लिख गया हो। यदि ऐसा कुछ नहीं है तो उपर्युक्त प्रमाण-समुच्चयके आधार पर हमें इसे कहनेमें जरा भी संकोच नहीं हो सकता कि राइस साहबका इस ग्रंथको आयितवर्माका बतलाना बिलकुल गलत और भ्रममूलक है-उन्हें अवश्य ही इस उल्लेखके करनेमें कोई गलतफहमी अथवा विप्रतिपत्ति हुई है। अन्यथा यह ग्रंथ स्वामी समन्तभद्रका ही बनाया हुआ है और उन्हींके नामसे प्रसिद्ध है।
यह सब लिखे जानेके बाद, हालमें हमें उक्त पुस्तकके नये संस्करणको देखनेका अवसर मिला, जो सन् १९२३ में प्रकाशित हुआ है, और उस परसे हमें यह प्रकट करते हुए प्रसन्नता होती है कि इस संस्करणमें राइस साहबकी उक्त गलतीका सुधार कर दिया गया है और साफ तौर पर 'रत्नकरंडक आव् समंतभद्र ' ( Ratna Karandaka of Samantabhadra) शब्दोंके द्वारा “रत्नकरंडक'को समन्तभद्रका ही ग्रंथ स्वीकार किया है।
ग्रन्थके पद्योंकी जाँच । समाजमें कुछ ऐसे भी विद्वान् हैं जो इस ग्रंथको स्वामी समन्तभद्रका बनाया हुआ तो ज़रूर स्वीकार करते हैं, परंतु उन्हें इस ग्रंथके कुछ पद्यों पर संदेह है। उनके विचारसे ग्रंथमें कुछ ऐसे पद्य भी पाये जाते हैं जो मूल ग्रंथका अंग न होकर किसी दूसरे ग्रंथ अथवा ग्रंथोंके पद्य हैं और बादको किसी
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